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________________ (३४१) अर्थात् क्लेश उद्भववाथी धर्मनो नाश थाय छे. " प्रतिष्ठाकारकनुं वर्तन" स्पष्टीकरण-चित्तनी शान्ति अथवा प्रसमता माटे मंदिर बंधावीए छतां जो आदिमाज मनने ग्लानि थाय तो पछी मंदिर बंधाववानुं फल शुं १ माटे मंदिर बांधनार भने बंधावनारे जेम शान्ति सचवाय, क्लेशन उद्भवे तेम वर्तवू वधारे उचित गणाय. मा माटे ज भगवान् हरिभद्रसूरिजी जणावे के के 'चित्तविनाशो नैवं ' जे प्रमाणे मंदिर पंधाववानी विधि तथा शुद्धि विगेरेनुं स्वरूप भागळ कही गया ते प्रमाणे, तथा कारीगर साथे बंधावनारे पहेलाथी ज स्पष्ट भाव नक्की करवा विगेरे जे व्यवहार कही गया ते प्रमाणे वर्तवाथी कारीगर भने बंधावनारने परस्पर भविष्यमा लेवडदेवडमां बांधो पडतो नथी एटले बोलवा-चालवानुं तथा क्लेशनुं कारण कदापि उद्भवतुं नथी. उद्भवे नहीं कारण के शास्त्रकर्ता था मंदिर बंधाववारूप कार्यमां अने उपलक्षणथी धर्मना कार्योमा आपसमां केश, खेद, परिताप, विवाद के झघडो न थाय तेम वर्तवू एवो खास उपदेश अपें छे. परमार्थ ए के-धर्मतत्त्वज्ञो मावा कार्योमा प्रथ. मथी ज 'चिचविनाश' क्लेशादिनो निषेध करे छे. निदान ए के-जो धर्मकार्योंमां क्लेश आदि उद्भवी चित्तनी अशान्ति थाय तो धर्मनो नाश थाय-धर्मप्राप्ति कदापि थाय नहीं.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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