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________________ (३४०) समये कार्य पूर्ण करे नहीं. वळी मापेला पैसानो प्रषिक दुरुपयोग थवाथी पापनो माग आवे, तथा व्यसन रहित अने व्यसनी मा बनेनो तुन्य सत्कार करवाची अव्यसनी पण अनादरवान् थाय माटे भहीं व्यसनीने अनधिकारी शास्त्रकर्ताए गण्यो. अव्यसनी पासे कार्य कराववा पहेला लौकिक न्यायथी खास भाव नकी करवो के ' अमुक भाव आपी\'जेथी भविष्यमा विसंवाद वधी क्लेशनो प्रसंग उपस्थित न थाय. पाम कर्या पछी प्रतिमा तैयार थया पछी ते कारीगरने पवित्र वृत्तिथी भने सत्कार, सन्मान, विनय साथे उचित-योग्य वस्त्रालंकार आदिनुं दान कर. ___ सव्यसनी माटे शास्त्रकाए निषेध केम दर्शाव्यो ? तेनुं कारण अहीं ग्रंथकर्ता पोते ज करे छे. चित्तविनाशो नैवं, प्रायः संजायते द्वयोरपि हि ॥ अस्मिन् व्यतिकर, एष प्रतिषिद्धो धर्मतत्त्वज्ञैः ॥ ७-४॥ मूलार्थ-या प्रकारे वर्तवाथी मंदिर बंधावनार भने बांधनार बना चित्तमा खेद के क्लेश बहुधा निश्चयथी उत्पन्न थतो नथी, कारण के कल्याणकारी आवा धर्मकायोमा धर्मतत्त्वज्ञोए चित्तविनाशनो सर्वथा निषेध कर्यो के
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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