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________________ ( ३१६ ) इच्छा करवी नहीं, माल ओछो-तो आपको नहीं; किन्तु जे पैसा ठराव्या होय ते ज विना प्रपंचे तेओने संतोष थाय तेवी ते आपवा; कारण के ग्रंथकर्ता कहे छे के–'न व्याजादिह धर्मो' कारीगरो साथै कपट - छळ-प्रपंच करवाथी धर्म थतो नथी पण उलटो धर्म वधे छे. मंदिर बंधावनारे पोताना शुद्ध आशयनी वृद्धि थाय ते प्रमाणे वर्तकुं तो यहीं मंदिर बंधावनारे केवा पवित्र आशयथी मंदिर बंधावj तेनो उल्लेख ग्रंथकर्ता दर्शावे छे. देवोद्देशेनैतद्गृहिणां, कर्तव्यमित्यलं शुद्धः ॥ निदानः खलु भावः, स्वाशय इति गीयते तज्ज्ञैः ॥ ६-१२ ॥ मूलार्थ - ग्रहस्थे जिनभक्तिरडे जिनमंदिर बंधावनुं, पण अमुक लालसाथी अथवा पुत्र, धन आदिना लोभवडे बंधाव नहीं. उपरोक्त धारणा तेज पवित्र आशय कहेवाय. आ आशय पवित्र आशयवेत्ता स्वाशय कहे छे. " स्पष्टीकरण " निदान वगरनी ज धर्मक्रियाओ इष्ट फल आपे एवं जैन शास्त्रो कहे . तव धर्मज्ञे धर्मक्रिया वर्तनमां कोइ पण जातनुं नियाणुं करवुं नहीं. नियाणावाळी धर्मक्रिया पापानुबंधी पुण्य
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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