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________________ ( २१) सूत्रेऽप्यविकलमेतत्प्रोक्त___ ममेध्योत्करस्यापि ॥ ६ ॥ मूलार्थ-अपर-अन्यदर्शनीयोए पण निश्चयपूर्वक अशुभभाव विशिष्ट एवा बाह्यत्यांगन फल मिथ्याचार-कपटफल कह्यं छे, अने जैन सिद्धांतमां पण आवा त्यागने अविकलपणे विष्टाना उकरण जेवो कह्यो छे. बाह्यत्यागर्नु फल स्पष्टीकरण-अपर-जैन सिवायना दर्शनवालाप्रो अर्थात पांतजल विगेरे आभ्यंतरत्याग विनाना बाह्यत्यागने अशुभभाव कहे छे. अर्थात्-केवल बाह्यत्याग ते ज कहेवाय के जेना अंतरमा अनेक मलीन वासनाओ, दुष्ट संकल्पो, विषयोनी तृष्णा आदि भर्या होय, अतएव ा त्यागने अशुभ, अपवित्र त्याग अीं कह्यो, अने आवा त्यागनुं फल ते लोको स्पष्टतया-निश्च. येन मिथ्याचार-कपटीत्याग दांभिक फल दर्शावे छे, जेम कोइ नट लोकोने रंजन करवा, मोह उत्पन्न करवा अल्पकाल माटे मुनिवेश धारण करे छे, पण नाटकना अंते ए वेश उतारी नांखे छे; परंतु अंतरमा तत्संबंधी लेश पण भाव के त्याग होतो नथी, जेथी आ न्याग नाटकियो-त्याग दांभिकत्याग कहेवाय छे. एवं अत्रे पण उपरोक्त त्यागने नाटकीयो त्याग कह्यो छे. आ त्यागर्नु फल मिथ्याचाररूपी फल सिवाय अन्य फल मलतुं नथी वधुमां शास्त्रकर्ताओए आवा त्यागने तो केवल महापापना उदय तरिके जणाव्युं छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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