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________________ (३०८) वगरना होय, पोताना कार्यमां मददगार न थाय तेवा होय तो पण ते सर्वेनो अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थों आपीने, नमस्कार, अंजली, विनय, नम्रताथी सन्मान करीने, आसनादिथी सत्कार करीने अवश्य सत्कार करवो, तेत्रोने खुश करवा. तेश्रो पण जिनमंदिर आदि कार्यों अने प्रापणी धर्मप्रवृत्ति देखी "अहो ! धन्य छे आ जैनधर्मने ! धन्य छे श्रा जैनोने !! के जे धर्ममां, जे लोकोमां, आटलो विवेक रह्यो छ, बाटली उचितता रही छे ” आ प्रमाणे प्रशंसा करे अने परिणामे सरल परिणामी थइ तेत्रो जैनधर्मनुं गौरव करी रागी थाय अने छेवटे धर्म पामी मार्ग पर आवे. अर्थात् बांधनारनी श्रा प्रवृत्तिथी अन्य लोको शुभ अध्यवसाय पामी बोधिनो लाभ करे, पोताना समकितनी शुद्धि थाय, लोको जैनधर्मनी प्रशंसा करे, अनुमोदन-अनुकरण करे, अतएव धर्म साधता थका अन्यने शुभ परिणामो करवाथी बोधिसाधननुं प्रा एक अगत्यतुं अंग छे. जिनमंदिरमां पत्थर आदि जे जोइए तेनी शुद्धि केम करवी ? तेनो उपदेश ग्रंथकर्ता आ प्रमाणे करे छे. दलमिष्टकादि तदपि च, शुद्धं तत्कारिवर्गतः क्रीतम् ॥ उचितक्रयेण यत्स्यादा नीतं चैव विधिना तु ॥६-७॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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