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________________ (३०७ ) अशनादिवडे मान अने सत्कारथी सन्मान करी ते लोको जैनधर्मनी प्रशंसा करनार सुंदर परिणामवाला थाय तेम करखुं, कारण के आवुं वर्तन राखनुं ते खास समकित प्राप्तिनुं अंग बने छे. " स्पष्टीकरण " जिनमंदिर स्वने परने बोधिप्राप्ति अथवा तेनुं रक्षण तेमज उज्वलता करवा माटे बंधावाय छे. या समकितनो लाभ, रक्षण अथवा उद्दीपन विगेरे पोताना कुशल परिणामो बनवाथी, अन्यने कुशल परिणामवान् करवाथी, धर्मनी प्रशंसा करवाथीकराववाथी थाय. जे कार्यमा कर्तानुं हृदय शुभ न होय, नजीकना लोकोनी प्रसन्नता न होय, अन्य लोकोने अनुमोदनीय न थाय ते कार्य आायंदे हितकारी अथवा लाभदायी कदापि थाय नहीं. जिनमतमां जे जे कार्यो कल्याण अने लाभदायी मान्या छे ते सर्व स्वहृदयनी प्रसन्नता अने परने अनुमोदनीयना आधारे अवलंबवाथी ज थाय. निदान ए केहृदयनी विपुलता ने उच्चता विना जिनमतना कल्याणकारी कार्योंनो लाभ थाय नहीं. अतएव भगवान् हरिभद्रसूरिजी कहे छे के- जिनमंदिर बंधावनारे केवल पृथ्वी, काष्ठोनी ज शुद्धि करी बांधनार कारीगरोने खुश करी अमे शुद्धिनुं रक्षण कर्यु एटलाथी संतोष मानवो नहीं, किन्तु जिनमंदिर बांधती वखते अने बांध्या पछी त्यां आसपास निवास करनार जे लोको होय, ते खजातीय अगर परजातीय एवं स्वजनादि संबंध
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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