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________________ ( ३०५ ) माझा विरुद्धपणे जिनद्रव्य वधारे तो धात्मा अनन्तसंसारी थाय छे, ए वाक्य खास मननीय छे. जिनमंदिर माटे जे जमीन जोइए तेमां चाटली विधि साचववानुं शुं कारण १ तेनो हेतु ग्रंथकार खुल्लो करे छे. शास्त्रबहुमानतः खलु, सच्चेष्टातश्च धर्मनिष्पत्तिः ॥ परपीडात्यागेन च, विपर्ययात्पापसिद्धिरिति ॥ ६-५ ॥ मूलार्थ - विधिदर्शक वास्तुशास्त्रनुं बहुमान करवाथी अने अन्यने पराभव न उपजाववाथी तेमज बीजाने क्लेश न उपजाववाथी निश्वयथी धर्मसिद्धि थाय, अने आाथी विरुद्ध वर्तन करवाथी पापसिद्धि थाय. " स्पष्टीकरण " वास्तुशास्त्रमां जे विधि जिनभवन बनाववानी कही छे ते प्रमाणे अनुसरण करवाथी शास्त्रविधिनुं बहुमान सचवाय. धर्म शास्त्रनुं बहुमान अवश्य कर ए तो सामान्य नियम छे, तथाप्रकारे बर्तवाथी निर्दोष भाववर्धक जिनभवन पण तैयार थाय छे अने तेथी ज धर्मनिष्पत्ति पण सिद्ध थाय; मज जिनभवन आदि कार्यों साधतां प्रथम ते कार्यों करवाथी २०
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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