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(३०४) " स्पष्टीकरण"
वास्तुशास्त्रमा जे प्रकारे विधि कही छे ते प्रकारे प्रथम पृथ्वीनी शुद्धि करवी, एटले जे भूभाग पर जिनमंदिर बांधवू होय ते स्थलमां मुडदा के अस्थिओ न होय तेम चोतरफथी तपास करी निःशल्य भूभागमां जिनमंदिर बांधवू. आ भूभाग पण सन्न्याय प्राप्त धनथी खरीदीने लेवो अने पृथ्वीना मालीकने यथेष्टपणे संतुष्ट करवो. निदान ए के-जे पृथ्वी माटे किंचित् पण अन्यायने स्थान न मळे अने न्यायथीज लीधी होय, तथा ते भूभागनी आसपास कोई ग्रहस्थ जन रहेता होय तेभोनी एक अंगुल मात्र पण जमीन जेमां दबाय नहीं, तेश्रोने यत्किंचित् पण क्लेश, दु:ख के उद्वेग थाय नहीं-श्रा विधिथी प्राप्त जमीन शुद्ध भूमि कहेवाय. जिनेश्वरदेवो जिनमंदिर माटे
आवीज भूमि योग्य कहे छे. हेतु ए के-आवी जमीन पर जिनमंदिर बांध्यु होय तो ते कल्याणमय अने शास्त्रोक्त विधानवालं कहेवाय. पा परथी मंदिरना ट्रॅस्टियो मंदिरनी पासेनी जमीन धर्ममां जाय छे, एम मानी दवाववा अधम प्रयत्न करे छे, कोइ पण गृही मरवानी अणी पर होय त्यां कपट करी तेना कुटुंबीयोने रडता राखी तेना मकानो, मिल्कतो मंदिरमा लेवा प्रयत्न करे छे, श्रावकधर्म विरुद्ध कर्मोथी पैसा एकत्र करी जिनधन वधारवानी घेलछा राखे छे ते नितान्त शास्त्रविरुद्ध अने कर्मवर्धक छे एम स्पष्ट थाय छे. एटले आ रीति तो नितान्त अनुचित ज कहेवाय. आथी शास्त्रो उपदेशे छे के-जिन