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________________ ( २८८ ) " जे कृतकृत्य बनी उत्तम धर्म प्राप्त करी बीजाचोनुं कल्याण करवा प्राप्त सत्धर्मनो उपदेश करे छे तेश्रो ज खरेख र सर्वदा उत्तमो करता पण उत्तम अने नितान्त पूज्यतम होय. " अतएव आ देवनी पूजा करवी ते ज पूजा कहेवाय. वास्त विक रीते मानवी या देवोनी पूजाने योग्य आ वीतरागदेव सिवाय अन्य कोइ न होइ शके. जेने आपणे मोक्षदातृत्व बुद्धिथी पूजी तेमां यदि ते गुण न होय, पोते पण ते स्थानना अधिकारी होय तो तेने पूजवानुं फल शुं ? आाथी ज उमास्वाती महाराजे कह्युं छे के - " तस्मादर्हति पूजाम र्हन्नेवोत्तमोत्तमो लोके । देवर्षिनरेन्द्रेभ्यो पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम् " ॥ १ ॥ जगतमां उत्तमोत्तम अर्हन् देव ज होवाथी ते ज पूजा करवाने योग्य छे, कारण के - देवो, महर्षिश्रो, नरेन्द्रोने तेश्रो पूज्य होवाथी अन्य प्राकृतजनोए तो अवश्य तेथोनी पूजा करवी जोइए. " पूजकोए पूजन करवा पहेला परमेश्वरनुं उपरोक्त स्वरूप खास मनन करी तेने ध्यानमां राखनुं जोइये, जेथी पूजन करतां मननी प्रसन्नता याय, पूजानो उद्देश बराबर साचवी शकाय अने पूजन शा माटे करुं छं ए तत्त्वनुं यथार्थ भान थाय. वस्तुतः जेश्रो उपकारी होय, जेश्रो पासेथी भविष्यमां कांइ तत्त्व मेळववानी इच्छा होय तेश्रोनो सुयोग्य उचित सत्कार करवो ए व्यवहारिक नियम पण छे. ज्यारे परमात्मा तो अतुलोपकारी, अनन्य असाधारण लखदाता सांसारिक त्रिविधताप दूर करनार होवाथी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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