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________________ (२८७ ) कतर्व्य मानी सेव्या नथी, लीला मानी लोकोने तेम करवानो उपदेश आप्यो नथी, भोग्य पदार्थोनी तृषामां आसक्तिथी लीन बन्या नथी, भौतिक मायामां लिपटाइ स्वजींदगीने व्यतीत करवानी तृष्णा राखी लोकोने आ तो ईश्वरनी अलिप्त लीला छे अावा प्रपंचथी ठगवानो प्रयत्न कर्यो नथी; किंतु कर्मजन्य उपाधियो वेठी, सुअवसरे संसारना प्रपंचने छंडी, राज्य, धन, कुटुंब, स्त्री-पुत्रादि परिवारने वस्त्रे लागेल कचरानी जेम अलग करी, घोरतम तप प्रादरी, अज्ञ लोकोए उपजावेल असंख्य परीसहो, कष्टो, उपद्रवो, ताडन, तर्जना, अपमान, उपसोने एकांत क्षमाभावथी, राग-द्वेष विना प्रसन्न अंतःकरणथी अडगपणे सहन करी, अनादिना आठे कर्मोने आत्माथी अलग करी, शुद्ध निर्दोष कांचनवत् निष्कलंक आत्मस्वरूपने, अनन्तज्ञानने जेस्रोए प्राप्त कर्यु, अखिल गुणो प्राप्त कर्या, केवल प्रा. त्मिक शुद्ध सच्चिदानंदनी लीलामां मन बनी भव्य आत्माश्रोनो उद्धार करवा माटे शुद्ध सन्मार्गनो, शुद्ध निराबाध निर्दोष तत्वनो जेओए उपदेश को तेश्रो ज परमार्थथी ईश्वर, देवाधिदेव, परमात्मा अने वीतराग नाम धारण करवाने योग्य कहेवाय. आ ज देव पतितपावन, जगदुद्धारक, अशरणशरण, वत्सल, हितदायी, संसारभय रक्षक, कृतकृत्य, उत्तमोत्तम परमात्मा कहेवाय अने ते ज परमात्मा विना स्वार्थे जगत्ने सन्मार्ग दर्शाची शक. उमास्वाती वाचकजीए कह्यु छ के-“यस्तु कृता र्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव" ॥१॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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