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________________ (२८५) ए रीते उपर 'महादान तथा दान'नुं स्वरूप कडं, हवे जिनपूजानुं स्वरूप दर्शावे छे. देवगुणपरिज्ञानात्त भावानुगतमुत्तमं विधिना ॥ स्यादादरादियुक्तं, यत्तद्देवार्चनं चेष्टम् ॥ ५-१४ ॥ मूलार्थ-विधियी आदर प्रीति श्रद्धापूर्वक वीतराग देवना जे जे वीतरागत्व गुणो होय तेना ज्ञान साथे अने तेमांज लीनता तथा उत्तम भाव सहित जे अष्टद्रव्य आदिथी भगवंतनी पूजा तेनुं नाम वास्तविक अने इष्ट पूजा समजवी. " स्पष्टीकरण" परमनिवृत्तिरूप जे फलोदेशथी आपणे जेने पूजीए ते देवनुं देवत्व शुं छे ? पूजाने ते अविरोधपणे योग्य छे के नहीं ? तेनो सुष्टु विचार करवो जोइये; कारण के तो ज ते समिचीन पूजा कहेवाय अने पूजानुं इष्टफल प्राप्त थाय; अन्यथा ते पूजा मात्र ज कहेवाय. जैन शास्त्रो संबोधे छे के तमे इश्वरनी लीला या चमत्कारो देखी अथवा गाडरीया. प्रवाहथी तणाइने तेमज कोइनी प्रेरणा मात्रथी अगर अमारा पर विश्वास राखी देवनी पूजा या मान्यतामां पतंगनी माफक अग्निमां झंपलावशो नहीं, किंतु प्रथम तेनी तमे कांचननी जेम परीक्षा करी इश्वरनुं निर्दोष-निष्कलंक स्वरूप विचारी-तपासी पछी ज तेने मानवाने,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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