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कोनी चोरी करता कांइ भय लागे नहीं. घाटलं जणाव्या पछी हवे पूर्णांग सहित थोडो पण ते न्यायप्राप्त धननो उपयोग क्या करवो ? ते आचार्य कहे छे. “दीनतपस्व्यादौ " उपर कथित रीतथी ते न्यायप्राप्त धन जेओ निराधार होय, अशक्त ने विशिष्ट पापकर्मो सेवनमां असमर्थ होय तेवाओने अने त्यागी, मुमुक्षु, महाव्रतधारी तपस्वीओने आहार, वस्त्र, पात्र, वसति, पुस्तक आदि आपवामां अने अन्य जिनपूजा, सहधर्मीसेवा आदि अनेक पवित्र कार्योंमां उपयोग करवो - खर्च करवो. या रीतथी विवेकदृष्टि करेलो थोडो पण खर्च महान् फलने- पुण्यानुबंधी पुण्यने- अर्धनार थाय छे. अतएव श्राचार्य भगवंत या व्ययने - खर्चने महादान एवी संज्ञा आपे छे अर्थात् या खर्चनी आगल अन्य लाखो तथा कोडो खर्ची दान कर्यु होय, जिनमंदिरो, जिनप्रतिमाओ बनावी होय, म्होटी दानशालाओ उभी करी होय, असंख्य
तिथि सत्कार्या होय, म्होटा संघो अने लाखो सहधर्मीयोनी सेवा करी होय तथापि ते दान ज कहेवाय एटले महादानमां जे लाभ थाय ते कार्यों करवा छतां लाभ थाय नहीं. आज हेतुथी ग्रंथकार महर्षिए ' दानमन्यत्तु' उपरोक्त विधानवियुक्त दानो ते दान कहेवाय एम कां. परमार्थ ए के - धर्ममां खर्च करनारे याशय, पदार्थ, पात्र अने कालनी पवित्रता तरफ एकान्त लक्ष्य राख जोइए तो ज खर्च इष्टसाधक बने.