SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५९) कारणथी चंद्रभ्रांति उत्पन्न थाय छे. एवं अहीं पण दीर्घ संसारीनी परिणति यथास्थित न होवाथीं तेमज मिथ्यात्ववासित चित्त होवाथी तात्त्विक पदार्थोनो प्रकाश करवामां समर्थ अने अज्ञान अंधकारनो नाश करनार सिद्धांतरूप दीपकमां भ्रान्तिनो आरोप करी विपरीतरूपे देखे छे. भावार्थ ए के-सिद्धान्तना वचनोना विपरीत अर्थो करी स्वमान्यतामां जोडी दे छ, अने तेथी करी परमार्थथी सत् पदार्थो होय तेने पण असत्पणे ज धारे छे, श्रद्धे छे अने माने छे. प्राथी छेवटे आ आत्माओ ज्यां अपवाद मार्गनो विषय न होय, केवल उत्सगे मागेज मान्य होय तेवा स्थलमां अपवाद मागेनो अध्यारोप करी अपकृष्टवादने ज स्वीकारे छ; अर्थात् मंदबुद्धिवाला ते आत्माओ वस्तुतः असद् मान्यताने ज मतिविकारथी अंगीकार करे छे. मति-मालिन्यताथी 'आगम-दीपक' ने भ्रान्तिमंडलरूपे मिथ्यात्वी प्रात्माओ देखे छे एटले विपरीत मान्यता स्वीकारे छे. आथी छेवटे श्रा आत्माअोनो केटलो अधःपात थाय छे ते अधिकतया स्पष्ट करे छे. तत एवाविधिसेवा दानादौ तत्प्रसिद्धफल एव । तत्तत्त्वदृशामेषा पापा कथमन्यथा भवति ॥५-६ ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy