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________________ (२५८ ) "अंतिम पुद्गलपरावर्त " पहेलां शास्त्रवचन न परिणमे एटलं ज नहीं पण शास्त्रवचन अधिक संसारीने विपरीतपणे ज परिणमे छे. आगमदीपेऽध्यारोप मंडलं तत्त्वतोऽसदेव तथा। पश्यन्त्यपवादात्मकम विषय इह मन्दधीनयनाः ॥५-५॥ मूलार्थ-अहींया लोकने विषे मंदबुद्धि चतुवाळा लोको परमार्थथी सिद्धांतरूप दीपकमां नितान्त खोटुं भ्रांतिरूप मंडळ धारीने तिमिर-रोगीनी माफक ज्यां अपवाद पदनो मार्ग न होय तेवा स्थळमां अपवाद स्थानने ज देखे छे अर्थात् हलकी दृष्टिथी पदार्थोने निहाळे छे. " स्पष्टीकरण" तिमिर नामनो नेत्रमा एक प्रकारनो रोग थाय छे. आरोग थया पछी रोगी नित्य दीपकने मयूरचंद्रकाकारं, नी. ललोहितभासुरम् । प्रपश्यन्ति प्रदीपादे-मंडलं मन्दचक्षुषः ॥ १॥ " मंद तेजोमय चतुवाला श्रात्माओ दीपकना मंडलने मायूरपिच्छ चंद्राकारे नील, लाल अने भास्वर इत्यादि विविध रंगमय देखे छे." ए श्लोकना भावाथैथी चंद्राकारे जुवे छे अर्थात् दीपकना प्रकाशमां पण रोगना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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