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________________ (२५२) अधिकारिणो नियोगा चरम इयं पुद्गलावते ॥५-२॥ मूलार्थ-शुद्ध धर्मना लाभ पहेलां अनादिथी अप्राप्त आशय-पवित्रतारूप आरोग्यतानो जे लाभ थाय अर्थात् समकितनो लाभ थाय तेने " लोकोत्तरतव" प्राप्ति कही छे. श्रा " लोकोत्तरतत्त्व " प्राप्ति परम मोक्षरूप आरोग्यतार्नु बीज छ, अने आ बीज ( समकित ) नो लाभ क्षीणप्रायः संसारी एवा भवी आत्माने निश्चयथी अंत्य पुद्गलपरावर्त कालमां ज थाय छे. " स्पष्टीकरण" व्याधिविकारो शान्त थया विना आरोग्यता दुर्लभ होय छे, एवं अनादिथी आत्माने लागेला पापविकारो शान्त न थाय त्यां सुधी आशयनी आरोग्यता क्याथी थाय ? अतएव ग्रंथकर्ता "आदी भावारोग्यं" ए पदथी "लोकोत्तरतत्व" नो लाम देखाडे के. पूर्व अनादि कालमां नहीं थयेल माटे आदि एटले शरुपातमां ज जे अंत:करणनी पवित्रता थाय के जेना बलबी तीव्र पापविकारो शान्त थाय आनुं नाम " भाव-आरोग्य " जाणवू. बीजा शब्दमां " समकित" कयुं छे. भावार्थ ए केलौकिक धर्ममां समकित नथी होतुं अने तेथी ते धर्म ताविक धर्म न कहेवाय. एटले देशन्यून ओगणोत्तर कोटाकोटी सागरोपम प्रमाणे मोहनीयकर्मनी स्थितिनो हास थया पछी जा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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