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________________ ( २५१ ) " सामान्य धर्म' नी सिद्धि थया पछी “ नियमेन " ए पदथी निश्वयथी " लोकोत्तरतश्व " प्राप्त थाय छे एम भारपूर्वक कहे छे. अर्थात् जे आत्मा अद्यापि 'धर्म' शुं छे ? एटलं पण जाणतो नथी ते आत्मा लोकोत्तर धर्मने क्यांथी जाणे ? माटे तेवा आत्माए प्रथम लौकिक धर्म जाणवो जोइएसिद्ध करवो जोइए एटले काळांतरे लोकोत्तर धर्म पण पामी शके. अहीं " लोकोत्तर धर्म " ना अधिकारी कोण होइ शके ए वातने टीकाकारो स्पष्ट करे छे के जेओ स्वस्व धर्मग्रन्थोमां कल मुमुक्षुजन योग्य अनेक प्रकारना आचारो, क्रियाओ अने अवस्था नी अपेक्षाएं शुद्ध होय अर्थात् तेमां रंगाया न होय तेमज परिणामनी अपेक्षाए स्वच्छ परिणामी होय तथा स्वतंत्र व्यवहारमा पुनर्बंधक परिणामवाळा होय एवं सम्यक्त्वशाळी दृष्टिवंत होय एवो हरकोई ग्रात्मा ते " लोकोत्तरतत्त्व " नी प्राप्ति करवा भाग्यशाली थाय छे. सामान्य लोको जे तत्त्वना परमार्थने जाणी शकता नथी-विचारी शकता नथी अने दृष्टिनी बहार के एवा तच्वने शास्त्रकर्ताओ " लोकोत्तरतस्व " कहे छे. भावार्थ ए के - परमार्थ धर्मने पामवाने उपरोक्त अधिकारी आत्माओ ज योग्य के. या "लोकोत्तरतव" नी प्राप्ति जे स्वरूपमां थाय ते अने क्या कालमां थाय ते वातने ग्रंथकर्ता दर्शावे छे. आद्यं भावारोग्यं बीजं चैषा परस्य तस्यैव ।
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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