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(सर)
श्रा प्रमाणे ग्रंथकर्ताए आ चतुर्थ षोडशक प्रकरणामां धर्मना लिंगरूपे " औदार्य" आदि पांच प्राशयोनुं विस्तृत स्वरूप, पापक्किारोनुं कयन अने मैत्र्यादि चार भावोतुं दर्शन करावी बाल, मध्यम तथा बुधने धर्मप्राप्ति थया पछी उत्तरोत्तर गुणमी स्थिति जेम वधती चाले तेने दर्शावी आ अंतिम श्लोकथी त्रा प्रकरणनो उपसंहार कर्यो. श्लोकमां 'खलु'ए शब्द मात्र वाक्यने सुशोभित करवा माटे ज प्राप्यो छे, तो पण तेनो निश्चय अर्थ करी “निश्चयेन धर्मसिद्धिमान् आत्माने ओळखावनारुं आ जिनप्रणीत लिंग-चिह्न छे" एवो अर्थ करवामां कांइ असंगतता देखाय छे खरी ? छतां टीकाकारोए ते अर्थ केम न स्वीकार्यों तेनुं समाधान अमाराथी केम बने ? ग्रंथकर्ता प्रकरणनी समाप्तिमां 'सिद्धं ' ए पदयी संपूर्ण प्रकरणने मंगलमय जणावी उत्तर प्रकरणनी साथे या प्रकरणनो संबंध दर्शावे छे अर्थात् प्रकरणनी समाप्तिमा जे खास वाक्य आवे तेज वाक्यथी ग्रन्थकर्ता उत्तर प्रकरण खास प्रारंभ करे छे, आथी ग्रन्थकर्ता केवा प्रौढ कवि हशे ते तेमनी वाक्यरचना परथी विद्वानोए समजवानुं छे.