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________________ ( २३२) उदयथी ते ते आत्माओ पापने पापरूप न मानता कर्तव्यधर्म माने छे. आज दोषना बलथी उंच भूमिकाए पहोंचेल अात्मायो उंधे मुखे पडी अधोमार्गगामी बन्या छे. जमाली महावीर प्रभुथी उलटो थयो, त्रैराशिकमत प्ररूपक संघ आचार्य अने भगवंतना सिद्धान्तथी उलटो चाल्यो विगेरे ' दृष्टिसंमोहना' साम्राज्यनो ज प्रभाव कह्यो छे. अथवा प्रकारांतरे दृष्टिमोहन स्वरूप जाणवू. 'गुणतः' ए पदनो भाव अध्यवसाय ए अर्थ लेवो, अर्थात् ए क्रियानो तुल्य होय, तेना कर्ताओ बन्ने जण एकसरखा परिणामवाला होय अगर बन्ने क्रियानो समान भाववाली होय छतां तेमां नामभेदथी अथवा आगमवचनथी पूर्वे कहेल वैदिकोनी यज्ञहिंसानी माफक एकने पापरूप मानवी अने अन्यने कर्तव्यकर्म तरीके मानवी आ लक्षण जे प्रवृत्तिमां सुघटित थाय ते दृष्टिसंमोह जाणवो. अने जे क्रिया उपलक दृष्टिये सरखी होय, तेमा प्रवर्तन करनार पण उपलक दृष्टिये पाप आचरण करतो देखाय छतां परिणामनी धारा भिन्न ज-अलिप्त होय, ते क्रियामां पोतानो यत्किंचित स्वार्थ न होय तेमन क्रियाजन्य फलनी इच्छा पोताना माटे राखतो न होय किन्तु धर्मसंरक्षण बुद्धि ज होय तो ते क्रिया पापरूप देखावा छतां तेना कर्ताने नितान्त कर्मनिर्जरा अने शुभबंध ज थाय; परंतु पाप लागे नहीं. दृष्टांत तरीके एक माणस, कुटुंब, स्त्री, पुत्र भने धन प्रादिनी लालसाथी व्यापार, खेती, व्याज, ग्रामसंरक्षण आदि करतो होय, अने
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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