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________________ (२३१ ) जेम पाप मान्यु तेम वैदिको वेदवाक्यथी यज्ञना माटे अमुक जीवोने वध करे आ वधमां पाप नथी मान्यु. हवे अहीं पोताना स्वार्थ निमित्ते करेल वधमां दुष्टचित्त मारवाना क्लिष्ट परिणामो अने स्वार्थनी तृप्ति तेमज मांसास्वाद आदि फलो वधकर्ता अनुभवे छे आ हेतुथी प्राणीवधमां पाप मान्यु. ते ज रीते यज्ञ माटे जे हिंसा थाय त्यां पण हिंसाकर्तामां दुष्टचित्त मारवानी बुद्धि, स्वार्थलोभ अने यज्ञशेषानो भोग विगेरेनो अवश्य सद्भाव छ, तथापि आ हिंसामां वेदवचनथी दोष न मानवो आनुं ज नाम शास्त्रकर्ता दृष्टिसंमोह जणावे छे, कारण के उपरोक्त बने हिंसानो परमार्थथी हिंसा जछे, बनेनुं फल पण एक सरखं छे; किन्तु यज्ञहिंसा वेदमां कर्तव्य तरीके जणावी एटले तेने वैदिकोए हिंसा न मानी अने बीजी हिंसामां अधर्म मान्यो. एज रीते अमुक संप्रदायमां प्राचार्य गृहवासी अने शिष्यसमुदाय त्यागी तथा ब्रह्मचारी आचार्यनी पालखी वहन करे, चामर ढाले, जे गृहसंसार अन्यने माटे पापरूप मान्यो त्यारे प्राचार्य प्रभुनो अवतार मनावी भोगविलासो करे अने तेमां पापनो अंश मात्र नथी परंतु ए तो इश्वरनी लीला छे एम वदे, तेम ज गुंसाइनो पण कृष्णावतार मनावी भोगविलासो करे तथा पाप न माने, जैनमतमां पण केटलाक शुष्क अध्यात्मवादीयो अमुक अमुक पापोर्नु सेवन करे छतां 'ए तो शरीरनी प्रवृत्ति छे' एम कही पाप नथी मानता ए सर्व चेष्टायो दृष्टिसंमोह नामे दुर्गुणनी उपजावेली समजवी के जे दुर्गुणना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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