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मूलार्थ - धर्मतच पामेल मनुष्यनं अतिगाढ विषयतृष्णा उद्भवती नथी तेमज दृष्टिसंमोह पण पराभव करी शकतो नथी, अने धर्मरूपी पथ्य पर अरुचि आवती नथी, एवं पापीष्ट क्रोधनी खुजलीओ के जेनाथी धर्म - घननो नाश थाय ते पण विर्भाव पामती नथी.
" स्पष्टीकरण "
लोकी मूलकर्ता धर्मतत्त्व पाम्या पछी तेना प्रभावी शुभ आत्माने क्या क्या पापविकारो उद्भवता नथ तेनो केवल नामनिर्देश दर्शावे छे, कारण के नामनिर्देश कर्या पछी विशेष स्वरूप कहेवानी सुगमता थाय. उपर धर्मतत्त्वना प्रभावी पांच विशिष्ट गुणोनो लाभ थाय एवं विधिमुखे प्रतिपादन कर्यु, हवे निषेधमुखे दोषो न उद्भवे ते अहीं जगावे छे. जो के गुणप्राप्ति जणाव्या पछी दोषाभाव थयानुं अर्थापत्तिथी ज लभ्य छे, एटले फरी दोषाभावनुं स्वरूप कहेतुं काकदंत परीक्षा जेवुंज गणाय; परंतु अहीं विशिष्टता आ समजवी के ज्यां गुण अने दोषोनो परस्पर प्रतिबंधक प्रतिबध्यभाव सुघटित होय त्यां ज उपरोक्त न्याय लागु थाय. दृष्टान्त तरीके शील ने व्यभिचार, दान तथा कृपणता विगेरेने तथाप्रकारे अहीं पण उपरोक्त पांच गुणो अने बागल कथन करातां पापविकारोने परस्पर प्रतिबंधक प्रतिबध्यभाव नथी, अर्थात् उपरोक्त गुणप्राप्ति थया पछी गुण आगल कथन करातां पापविकारो जागृतिने पामे है, अतएव ग्रंथकर्ताए ' दोषाभाव ' स्वरूप व्यतिरेकमुखथी विस्तृतया भवाभिन्नपणे