SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२११) होय तेना पर अप्रेमभाव-नही सेवन करवानी बुद्धि ए ज अर्थ जाणवो; अन्यथा सर्वथा पापनो अभाव तो शैलेशीकरणना अन्तिम समयमां ज थाय छे.. ___प्रथम 'पाप' आदिनुं यथार्थ स्वरूप समजवामां न आव्यु होय तो 'पाप' नी गर्दा केम बने ? तथा समजण विनानी निन्दा पण घणी वार अधिक पापबंध करावनारी बने छे तेम ज शास्त्रवचन पण 'ज्ञात्वा' आदि वाक्योथी प्रथम तो ज्ञाननी जरुरीयात स्वीकारे छे, अतएव 'पापजुगुप्सा' ए गुणनी अधिक दृढता करनारो चतुर्थ गुण 'निर्मलबोध' नामे शास्त्रकर्ता दर्शावे छे. निर्मलबोधोऽप्येवं शुश्रूषाभावसंभवो ज्ञेयः। शमगर्भशास्त्रयोगा च्छूतचिन्ताभावनासारः॥ ४-६ ॥ मलार्थ-निर्मलबोध' एटले शुद्धबोध. शम-शान्तिरसप्रधान एवा जे शास्त्रो तेने श्रवण करवानी इच्छाथी ज आ निर्मलबोध-शुद्धबोध प्रगटे छे अर्थात् वैराग्य, प्रशम आदि रसोनुं पोषण करनार शास्त्रद्वाराए जे बोध प्रगट्यो होय ते 'निर्मलबोध' नामे चोथु धर्मतत्वनुं लिंग जाणवू.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy