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________________ ( २१० ) छे. "लोभमूलानि पापानि" ए नीतिवाक्य यथार्थतया सुघटित थाय छे. आ माटे ज उपमितिमा कर्जा छे “पापानां कथयाप्यलं" "पापोनी वार्ता करवाथी पण पाप बंधाय छे." पापकार्योमा कोइ अजब एवी जादुइ शक्ति छे के-जेम भूत-डाकणनी सामे स्निग्ध दृष्टिए देखवा मात्रथी देखनारने ते चोंटे छे तेम पापो पण तेने याद करनारने वळगे छे. श्रा हेतुथी ग्रंथकार कहे छे के-तेनी चिन्ता पण कोइ समये करवी नहीं. ए रीते कालत्रयपणे पापोनी सामे तिरस्कारनी दृष्टिथी देखवू अर्थात् सर्वथा पापोनी उपेक्षा करवी अथवा अन्य प्रकारे टीकाकार 'पापजुगुप्सा ' ए पदनी व्याख्या करे छे. कायाथी पापनो त्याग करवो एटले कायाथी स्वयं पापो सेववा नहीं अने वचनथी पापो करवा नहीं, तेमज मनथी पाप करवानो विचार सरखो पण करवो नहीं, ए रीते अनुक्रमे काया, वचन तथा मन एत्रणे योगथी पापोनो त्याग करवो. आ प्रमाणे 'पापजुगुप्सा' नो गुण प्रगटे एटले प्रथमना ' औदार्य ' अने 'दाक्षिण्यता' ए बन्ने गुणो योग्य रीते सार्थक गणाय. अहीं आगल आगलना गुणो उत्तर उत्तरना गुणो साथे निकट संबंध धरावे छे. एटले उत्तरना गुणो प्रगटवाथी उपरना गुणोमां वधारे ताचिकता आवे छे. अहीं 'धर्मतचना' ना गुण तरीके 'पापजुगुप्सा' नामे जे त्रीजो गुण वणव्यो छे तेनो अर्थ 'कालत्रयपणे अथवा त्रिकयोगथी सर्वथा पापनो अभाव करवो' एवो न करवो, किन्तु जे जे मोटा पापकार्यों
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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