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(२०७) पापोद्वेगोऽकरणं
तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः॥ ४-५॥ मूलार्थ--'पापजुगुप्सा ' एटले पापनो त्याग अर्थात् यथार्थ शुद्धचित्तवडे निरंतर पूर्वे करेल पापकार्योनी वारंवार निन्दा भाववी, अने वर्तमानकालमां पापो नहीं करवा तेम ज भविष्यकालना पापकार्योनो कदापि विचार करवो नहीं, अथवा अनुक्रमे कायाधी पापो आचरवा नहीं, वचनथी करवा नही अने मनथी चिंतववा नहीं ए प्रमाणे 'पापजुगुप्सा' नामे त्रीजुं धर्मतत्त्वनुं लिंग जाणवू. "स्पष्टीकरण"
अहीं धर्मतत्त्वना बे लिंगो कह्या पछी त्रीजु लिंग 'पापजुगुप्सा' नामे जणावे छे. 'पापजुगुप्सा' ए पदमां पाप अने जुगुप्सा ए बे शब्दो छ, तेथी पाप एटले दुष्ट व्यापारो जेवा के-चोरी, जूठ, हिंसा, मैथुन आदि तेनी जुगुप्सा एटले निन्दा, पश्चात्ताप, खेद, फरी नहीं करवा माटेनी धारणाओ करवी अर्थात् अतीतकालमां पोताना प्रात्माए जे जे पापकार्यों कर्या होय तेने याद करी वारंवार पश्चात्ताप करवो, जेथी पोतानो आत्मा भविष्यमां फरी तेवा कार्यों करवा ललचाय नहीं. ा स्थले टीकाकार ‘पापजुगुप्सा' एटले 'पापपरिहाररूपा' पापनो त्याग करवो एवो अर्थ करे छे. परमार्थ ए के-करेल पापनो पश्चात्ताप एवो करवो के भविष्यमां