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________________ ( १८४) ए प्रमाणे सिद्धिनुं स्वरूप कह्या पछी तेना फलभूत विनियोग' नुं स्वरूप कहे छे.-~ कर्मथी बद्ध छे, मिथ्यात्व, अविरति, प्रसाद, कषाय, योगो ए रीते कर्मबंधना हेतुओ, कर्मनुं स्वरूप, चार गतिरूप कर्मनुं फल, संसारप्रपंच- स्वरूप अने आत्महितकारी पंथो ए सर्व अहीं जिनप्रवचनमा ज दर्शाव्यु छ, किन्तु बौद्ध, सांख्य, वेदान्त आदि कोइ पण मतमां दर्शाव्युं नथी. आवा आवा विचारो करवाथी आत्माने जरुर तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति थाय छे, तथा वारंवार अभ्यास करवाथी पण ज्ञाननो लाभ थाय छे. सूत्र-अर्थनो स्वाध्याय करवाथी अने गुरुकुलमां वास करवाथी ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे." " चारित्र-भावना" “साहुमहिंसा धम्मो सच्चमदत्तविरई य बंमं च । साहुपरिग्गहविरई साहु तवो बारसंगो य ॥ १ ॥ वेरग्गमप्पमात्रओ एगग्गे भावणा य परिसंगं । इय चरणमणुगयाभो भणिया इत्तो तवो बुच्छं" ॥ २ ॥ “अहिंसा मुख्य धर्म, सर्वथा शुद्ध सत्य, अदत्तनो एकान्त त्याग, नववाडे शुद्ध ब्रह्मचर्य, मू रूप अपरिग्रहनो त्याग, बार भेदवाली तपस्या-ए सर्व अत्र जिनमतमां ज कह्यं छे. वैराग्यनी भावनासंसारसुखनी गर्दा, अप्रमाद मांस-मदिरा विगेरे कर्मबंधना कारणो कह्या छे. एकाग्रभावना-ज्ञान दर्शनमय मारो भात्मा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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