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करे ते प्राशयतुं नाम 'सिद्धि' जाणवू. नितान्त पा पाशयना जोरथी प्रात्मा परमार्थभूत धर्ममां कुशलता प्राप्त करे छे. मात्र लोकद्रष्टिए धर्ममां निपुणता करवी ते काइ सिद्धि न कहेवाय कारण के बीजा प्रकारनी निपुणताथी कांइ आत्मानुं कल्याण थतुं नथी, किन्तु तेनाथी तो मात्र यत्किंचित् सुख के मानप्रतिष्ठा मले छेमाटे जा सिद्धिने अताविकी दर्शावी, ज्यारे पहेली सिद्धिथी निश्चयेन आत्मानुं अद्भुत कल्याण थाय छे. अतएव आने तात्त्विकी ए विशेषण प्राप्यु. वधुमां परमार्थ तथा धर्ममार्गमां निपुणता प्राप्त थवाथी प्रात्मा श्राकरा प्रबल कषायोथी निर्मुक्त थाय छे. हेतु ए के-प्रबल कषायोदयवान आत्मा कदापि उत्तम धर्ममार्गमां पवित्र आशय साथे प्रवृत्ति करी शकतो नथी, किन्तु जेना कषायो नरम हीन बली थया होय ते ज प्रवृत्ति करी शके, अतः आ आशयना प्रबल प्रतापथी आत्मा जेना साथे नित्यना वैरो होय तेनो पण नाश करे छे. एटले अमुक अंशे मैत्री, प्रमोद
आदि भावनाओना संस्कारवालो बने के माटे पण श्रा आशयने तात्विक आशय कह्यो छे. "प्रधान सिद्धि"
फरी ग्रंथकर्ता आ आशयनी प्राधान्यता देखाडवा उत्तरार्धमां बीजा बे विशेषणो आपी अधिक पुष्टि करे छे. “ अधिके विनयादियुता" एटले स्वात्माथी अधिक गुणवान् जे सज्जनो, वडीलो, महापुरुषो पर बहुमान, विनय आदि करवा, अथवा तेवा श्रेष्ठ पुरुषो के