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________________ (१७७ ) अात्मिक अधिकार संबंधी. जेथी आत्मानुं पालोक तथा परलोक उभय लोकमां कल्याण थाय ते तो तात्त्विकी अने जेथी आत्मानु कदाचित् आ लोक संबंधी ज हित सधाय ते अतास्विकी व्यवहार संबंधी. प्रस्तुत अधिकारमा जे सिद्धि नामे चतुर्थ आशय कह्यो छे ते केवल तात्त्विक-आत्मिक कल्याण संबंधी ज अाशयवाळो जाणवो, परंतु व्यवहारिक कार्योनी सि. द्धिरूप आशय अहीं न लेवो. अतएव ग्रंथकर्ताए या सिद्धिनुं 'तात्त्विकी' ए व्यवच्छेदक विशेषण आप्यु, तथा ा सिद्धिनो सत्य अर्थ आचार्यश्री पोते ज दर्शावे छे." सिद्धि-स्वरूप" 'सिद्धिः-तत्तद्धर्मस्थानावाप्तिः' सिद्धि एटले ते ते धर्मस्थानकोनी प्राप्ति, अर्थात् पूर्वे आत्माए जे जे धर्म संबंधी मर्यादाओ-प्रतिज्ञामो स्वीकारी होय तेनी अखंड रीते बराबर समाप्ति थवी, आत्माने ते ते धर्मप्रतिज्ञाना संस्कारोथी बराबर वासित करी उत्तम परिणतीवान् बनाववो. जेमके-सामायिक, पूजा आदिना नियमो लीधा पछी निर्विघ्नपणे अखंडतया दोष रहितपणे पूरा पाळवा. टीकाकार अहीं खुलासो करे छे के" विवक्षितस्य-धर्मस्थानस्याहिंसादेरवाप्तिः प्राप्तिः सिद्धिरुच्यते" विवक्षित-स्वीकृत धर्मस्थान जे अहिंसा आदि तेनी प्राप्ति-लाभ ते सिद्धि कहेवाय छे. एटले आत्मा अहिंसा आदि व्रतोनी बराबर निष्पत्ति जे आशयना बलथी १२
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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