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________________ (१५४) पवाने तेवा तेवा अनुकूल विचारो ज आपणे विचारी प्रात्माने दृढ बनावी तयाप्रकारे धर्म्य प्रतिज्ञामां निश्चलता पामीए. प्रा. पणी या स्थितिना मुकाबले आपणाथी अन्य जनता उतरती देखाय त्यारे ते गुणहीन नीची कोटीना छे एम धारी तेना पर यदि द्वेषबुद्धि अथवा घृणा के निंदकपणुं जो उद्भवे तो ते 'पणिधान' नामक आशय न कहेवाय. हेतु ए के-धर्म्य प्रतिज्ञा स्वीकार्या छतां जे प्रात्मा पोताने ते धर्म्यस्थानना बहाना नीचे गर्वी, देषी बनावी अधिक पाप पेदा करे छे ते धर्मस्थाननी साध्यता चूकी जाय छे. अतः या 'प्रणिधान' प्राशय संबंधी विशेष खुलासो करवा ग्रंथकर्ता अन्य विशेषण दर्शावे छे. आपणाथी धर्मस्थानवंचित या पतित एवी अन्य जनताने देखी तेना पर अनुकंपा धारवी. जेमके-' हुं पूजा कर्या विना भोजन करतो नथी अने तेवी प्रतिज्ञा में लीधी छे. तमे शुं करवाना ? तमारामां क्यां तेवी शक्ति छे ? तमारो तेवो पुण्योदय क्याथी होय ? तमे अधर्मी पापी छो. तमाराथी थोडोपण धर्म थतो नथी. धिक्कार छे तमारा जन्मने!' ए रीते गर्व के द्वेष न करवा किन्तु 'अहो पा लोको मनुष्यजन्म, बुद्धि, बल, आरोग्यता विगेरे पामवा छतां कांइ पण धर्मसाधन करता नथी. आ लोकोनी शी दशा थशे ? आ लोकोनो कांइ दोष नथी. तेभो तो कर्माधीन छे.' आप्रमाणे तेत्रोना पर अनुकंपा ज भाववी. भावी अनुकंपा सहित धर्मविषयक प्रतिज्ञामां हृदयनी जे दृढता-परिणती ते ज अत्र 'प्रणिधान' भाशय कह्यो छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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