________________
(१४५) चित्तना अभिप्रायपूर्वक जे क्रियाव्यवहार ते अहीं धर्मपणे स्वीकार्य नथी. निदान के-अत्र 'धर्म' पद विशेष्य होवाथी 'मलविगमेन पुष्टयादिमत् ' ए शब्दो धर्मपदना विशेषणपणे जाणवा. अतः श्रा व्याख्यापक्षमा "चित्तप्रभवः मलविगमेन पुष्ट्यादिमान् धर्मः " ए प्रकारे धर्मनुं अव्याहत लक्षण जाणq. " तारवण"
सारांश के-उभय पक्षमां 'धर्म' ना लक्षणमां अने तेना परमार्थमां भेद नथी मान्यो, मात्र श्लोकोक्त पदोनो भाव क्यो निकाळवो ? समास क्यो लेवो ? अने विशेष्य विशेषणपणे क्या पदो स्वीकारवा ? अमुक शब्दनो कोना साथे संबंध जोडवो? आटलो ज भेद पाड्यो छे. मूल वस्तुने बाधा न थाय तेवी रीते अन्यान्य युक्तिथी व्याख्यानो करवी तेमां शास्त्रीय विरोध प्राचार्योंए मान्यो नथी. प्रथम व्याख्यामां मनने धर्म मान्यो छे अने मनोविचारजन्य क्रियाने उपचारथी धर्म कह्यो छे, ज्यारे उपाध्यायजी मनोविचारजन्य अध्यवसायपूर्विका क्रियाने विना उपचारे सीधी रीते धर्म कहे छे, पाटलो भेद उभय पक्षमा छे खरो. बन्ने पक्षमा जे लक्षण धर्मनुं दर्शाव्यु छे ते एवं छे के सर्वदर्शनमान्य थाय, कोइ पण दर्शनवाला गमे तेटली युक्तियोथी अत्रोक्त धर्मलक्षण- खंडन करवा समर्थ नथी; एवं प्रा लक्षण सर्वतो कल्याणमदाता पण . १०