SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १११ ) " 66 स्साएसा कुणइ सेसं ॥ १ ॥ भगवाने आज्ञा आराधनमां ज चारित्र कह्युं छे. आज्ञानो लोप थवा पछी शुं बाकी रहे एटले चारित्र क्यांथी रहे ? जेणे गुरु आज्ञाने अतिक्रमी ते हवे कोनी आज्ञा आराधे ? अर्थात् ते कोइनी पण श्राज्ञा माने नहीं " फरी सर्व तत्वज्ञान, चारित्रनुं खास रहस्य, आगम पेटीनी चावी, विद्या ने मंत्रोनी सिध्धि, धर्मनुं गूढ तत्त्व - ए सर्व गुरु अधीन होवाथी मोक्षार्थीए खास करीने गुर्वाधीन ज पोतानुं जीवन व्यतीत करवुं, एटले गुरुपाद सेवामां ज जीवन चरितार्थ कर जेथी सर्व सिद्धियोपूर्वक आगमनुं गूढ रहस्य त्यांथी बराबर उपलब्ध थाय ने परिणामे कल्याण प्राप्ति पण थइ शके. " णाणस्स होइ भागी, थिरयरो दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति " ॥ १ ॥ एवं या अनंतसंसारना दुःखनो नाश करनार भने मोक्षदर्शक गुरु सिवाय या भूतलमां कोई नथी, एवं धारी ने आज्ञाधीन रहेवाथी तेयोनी परमकृपामय प्रसन्नता प्राप्त थाय छे. गुरु प्रसन्नता पासे जगत्ना तमाम पदार्थो तुच्छ जेवा भासे छे. गुरुकृपा एज परम प्राप्तव्य तच छे. या तत्त्वज परमगुरु - जे परमेश्वर तेनी प्राप्तिनुं मुख्य बीज छे. एटले गुरुकृपा फल्या पछी परमेश्वरनी कृपा विनाविलंबे हाथमां आवे छे. परमार्थ के - जे श्री गुरु आज्ञा आराधक होय यो अवश्यमेव प्रभु आज्ञानुं पालन करे छे अने जेणे गुरु आज्ञा लोपी तेणे प्रभु आज्ञानुं पण अवश्य खुन कर्यु जारावं, माटे अहीं गुरु पराधीनताने ईश्वरप्राप्तितुं मुख्य अंग कयुं छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy