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________________ उपर वर्णवेला धर्मना अंगरूप वधने माटे विवेचन करे ले. यागीयो वध एव धर्मजनकः प्रोक्तः परैःस्वागमे, नास्मिन्नौधनिषेधदर्शितफलं कार्यातरार्थाश्रिते। दादे कापि यथा सुवैद्यकबुधैरुत्सर्गतो वारिते, धर्मत्वेन धृतोप्यधर्मफलको धर्मार्थकोयं वधः॥५४॥ अर्थ-वेद मतवाला मिथ्यात्वी पोताना शास्त्रमा यज्ञस्थखने विषे करेलो पशुनो वध, धर्मजनक ने एम कहे. परंतु संपत्तिनी प्राप्तिरूप पशुना दाहमां सामान्यरीते निषेध करायेला कर्मनुं फल प्राप्त थतुं नथी एम समजवू नही, अर्थात् थायजे. कारण के उत्तम वेदज्ञ पंडीतोए उत्सर्गथी वारेला एवा पशुदाहमां तेनुं फल सुःखरूप कहेलु , तेश्री धर्मपणावडे मानेलो आ वध धर्मार्थ गणातां बतां अधर्मना फलने आपनारो बे. ५४ विशेषार्थ-वेदमतवाला पोताना शास्त्रमा यज्ञस्थलमां करेला पशुवधने धर्मजनक कहे. तेऊना शास्त्रमा लखेके " नूति कामः पशुमाललेत". संपत्तिनी श्वावाला पुरुषे यज्ञमां पशुनो होम करवो. कार्यात्तर अर्थात् संपत्तिनी प्राप्तिरूप कार्यना अर्थने आश्रित अने मुक्तिरूप फलथी जिन्न, तेमज उत्तम वेदज्ञ पंडीतोए उत्सर्गथी निवारेला आ पशुदाह विषे, उघनिषेध अर्थात् सामान्य निषेधवडे दर्शावेला फलनो निषेध करी, पुर्गतिमां जवारूप फल नथी मलतुं एम समजवू नहीं, अर्थात् मले बे. तेथी उत्सर्ग निषेधने अनुकूल एवं मुःखरूप फल न थाय एम समजवू नहीं, अर्थात् श्रायज, एम निश्चयपूर्वक जाणवू. धर्मने
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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