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________________ (११३) विशेषार्थ-पूर्व पदे लावधी, क्रियाथी, ते नाव क्रियाना अव्यस्तवमा धर्म अधर्मना मिश्रपणामां चौलंगी श्राय बे. ते आपमाणे-१ धर्मगतनाव अधर्मगतनाव २ धर्मगतनाव अधर्मगत क्रिया ३ अधर्मगतनाव धर्मगत क्रिया ४ धर्मगत क्रिया अधर्मगत क्रिया. चार लांगामा जे प्रथम नांगो धर्मगत नाव अने अधर्मगत नाव अर्थात् नाववडे लावना मिश्रपणानो बे, ते घटतो नथी कारणके, एकी साथे बे उपयोग अवानो संलव नथी. प्रव्यस्तवना तथा उपयोग एकी साथे होता नथी, तेथी बेनाव मिश्र थाय नही. जे अनारंजमां यत्नवान् होय तनो आरंजमां उपयोग होय नहीं कारणके, तेनी स्थिरतामां अतिचारना जयनो अनाव बे, एम सूदमदृष्टिए विचारवं. आप्रमाणे प्रथम नंग थाय . हवे नाव धर्मगत अने क्रिया इतरगत अ. थर्थात् अधर्मगत एवी आरंल नामनी क्रिया, आ बीजो नांगो अट्प ने, अर्थात् चूर्ण करवाने समर्थ नथी. कारणके शुल नावश्रीज क्रियागत एवं अशुननावधारवालुं रजोगुणना हेतुर्नु स्वरूप तेनो क्य थाय , तेथी था बीजो नांगो अटप ने अने जे क्रिया के ते अशुन्न नावधारा अधर्मनुं अने शुलनावधारा धर्मनुकारण , कांऽ स्वरूपथी नथी. ७२__ ज्यारे बीजा नंगनो पद लागु पडयो नही त्यारे वादीने अनिष्टा पतिथइ, ते कहे बे. वाहिन्युत्तरणादिके परपदे चारित्रिणामन्यथा, स्यान्मिश्रत्वमपापजावमिलितां पाप क्रियां तत्वतां ।
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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