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________________ ( ७३१ ) भव में बहुत कठिन दुःख भोगकर अन्त में श्रीपद्मनामतीर्थंकर के में वह सिद्धिको प्राप्त होवेगी. कहा है कि-शल्यवाला जीव चाहे दिव्य हजार वर्ष पर्यन्त अत्यन्त उग्र तपस्या करे, तो भी शल्य होने से उसकी उक्त तपस्या बिलकुल निष्फल है. जैसे अतिकुशल वैद्यभी अपना रोग दूसरे वैद्यको कहकरही निरोग होता है, वैसेही ज्ञानी पुरुषके शल्यका उद्धार भी दूसरे ज्ञानीके द्वारा ही होता है. ७ आलोयणा लेनेसे तीर्थंकरोंकी आज्ञा आराधित होती है. ८ निःशल्यपना प्रकट होता है. उत्तराध्ययन सूत्र के उन्तीसवें अध्ययन में कहा है कि - हे भगवन्त ! जीव आलोयणा लेनेसे क्या उत्पन्न करता है ? उत्तर -- ऋजुभावको पाया हुआ जीव अनन्त संसारको चढानेवाले मायाशल्य, नियाणशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य इन तीनों प्रकार के शल्यों से रहित निष्कपट हो स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेदो नहीं बांधता और पूर्व में बांधा होवे तो उसकी निर्जरा करता है. आलोयणाके उक्त आठ गुण हैं. अतिशय तीव्र परिणामसे किया हुआ, बडा तथा निकाचित हुआ, बालहत्या, स्त्रीहत्या, यतिहत्या, देव ज्ञान इत्यादिकके द्रव्यका भक्षण, राजाकी स्त्रीके साथ गमन इत्यादि महापापकी सम्यक् प्रकार से आलोयणा कर गुरुका दिया हुआ प्रायश्चित्त यथाविधि करे तो वह जीव उसी में शुद्ध होजाता है ऐसा
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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