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________________ (७३०) विषयभोगकी अनुमति क्यों न दी ? अथवा वे स्वयं वेद रहित होनेसे वेदका दुःख नहीं जानते." इत्यादि मन में चिन्तवन करके क्षणभरमें वह सचेत हो पश्चाताप करने लगी. उसे लजा उत्पन्न हुई कि 'अब मैं आलोयणा किस प्रकार करूंगी ?' तथापि शल्य रखने में किसी प्रकार भी शुद्धि नहीं, यह बात ध्यानमें ले उसने अपने आपको धीरज दी, और वह वहांसे निकली. इतनेमें अचानक पगमें एक कांटा लगा. जिससे अप. शकुन हुवा समझ वह मनमें झुंझलाई, और 'जो ऐसा बुरा चिन्तवन करता है, उसका क्या प्रायश्चित्त ?' इस तरह अन्य किसी अपराधीके मिषसे पूछकर उसने आलोयणा ली, परन्तु लजाके मारे और बडप्पनका भंग होनेके भयसे अपना नाम प्रकट किया नहीं. उस दोषके प्रायश्चित्तरूपमें उसने पचास वर्ष तक उग्र तपस्या करी. कहा है कि--विगय रहित होकर छठ, अट्ठम, दशम ( चार उपवास ) और दुवालस ( पांच उपवास ) यह तपस्या दस वर्ष; उपवास सहित दो वर्ष; भोजन. से दो वर्ष मासखमण तपस्या सोलह वर्ष और आंबिल तपस्या बीस वर्ष. इस तरह लक्षणासाध्वीने पचास वर्ष तक तपस्या करी. यह तपस्या करते उसने प्रतिक्रमणआदि आवश्यक क्रियाएं नहीं छोडी. तथा मनमें किंचित् मात्रभी दीनता न लाई. इस प्रकार दुष्कर तपस्या करी तो भी वह शुद्ध न हुई. अन्त में उसने आतध्यानमें काल किया. दासीआदि असंख्य
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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