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________________ (६५१) चैत्यवंदन आदि करके देव तथा गुरूको वंदना करना । चौवि. हार आदि पञ्चखान ग्रंथिसहित उच्चारण करना, तथा पहिले ग्रहण किये हुए व्रतमें रखेहुए परिमाणका संक्षेप करनारूप देशावकाशिक व्रत ग्रहण करना । दिनकृत्यमें कहा है कि " पाणिवह मुसादत्तं, मेहुणं दिणलाभणत्थदंडं च । . अंगीकयं च मुत्तुं, सव्वं उवभोगपरिभोगं ॥ १ ॥ गिहमज्झं मुत्तूणं, दिसिगमणं मुत्तु मसगजूआई। क्यकाएहिं न करे, न कारवे गंठिसहिएणं ॥ २ ॥ अर्थ:-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और दिन लाभ (प्रातःकाल विद्यमान परिग्रह) ये सर्व पूर्व नियमित नहीं इनका नियम करता हूं। वह इस प्रकारः-एकेद्रियको तथा मशक, जूं आदि त्रस जावोंको छोडकर शेषका आरंभ और सापराध त्रस जीव संबंधी तथा अन्य प्राणातिपात, सामान्य या स्वमादिके संभवसे मनको रोकना अशक्य है, इसलिये ग्रंथि न छोडूं वहां तक वचन तथा कायासे न करूं और न कराऊं। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान और मैथुनका भी नियम जानो । तथा दिनलाभ भी नियमित नहीं था, उसका अभी नियम करता हूं। उसी तरह अनर्थदंडका भी नियम करता हूं। शयन, आच्छादन आदि छोडकर शेष सर्वे मोगपरिभोगको, घरका मध्यभाग छोडकर बाकी सर्व दिशि गमनको ग्रंथि न छोडूं वहांतक वचनसे तथा कायासेन करूं, न कराऊं ऐसा त्याग करता हूं।
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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