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________________ (५०४ चुगली खाई । तो मनमें निकृष्ट अध्यवसाय आनेसे कुमारपालराजाने क्रोधसे आंबड मंत्रीको कहा कि, “क्या तू मेरेसे भी अधिक दान देता है ?" उसने उत्तर दिया- " महाराज ! आपके पिता दस गांवोंके स्वामी थे, और आपतो अट्ठारह देशके स्वामी हो, इसमें क्या आपकी ओरसे पिताजीकी अविनय हुई मानी जा सकती है ? " इत्यादि उचितवचनोंसे राजाने प्रसन्न हो उसे “ राज्यपुत्र" की पदवी व पूर्वकी अपेक्षा दूनी ऋद्धि दी । हमने भी ग्रंथान्तरमें कहा है कि, दान देते, गमन करते, सोते, बैठते, भोजन पान करते, बोलते तथा अन्य समस्त स्थानोंमें उचितवचनका बडा रसमय अवसर होता है। इसालये अवसरज्ञानी पुरुष सब जगह उचितआचरण करता है। कहा है कि 'औचित्यमेकमेकत्र, गुणानां कोटिरेकतः । विषायते गुणग्राम, औचित्यपरिवर्जितः ॥१॥ एक तरफ तो एक उचितआचरण और दुसरी ओर अन्य करोडों गुण हैं। एक उचितआचरण न होवे तो शेष सर्वगुणोंका समूह विषके समान है। इसलिये पुरुषने समस्त अनुचितआचरणोंको त्याग देना चाहिये । इसी प्रकार जिन आचरणोंसे अपनी मूर्खमें गिन्ती होती है, उन सबका अनुचितआचरणों में समावेश होता है। उन सबका लौकिक
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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