SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४९९) . उपकार करने अथवा रिश्वत खानेकी इच्छासे न्यायमार्गका उल्लंघन न करना. ॥ ३८ ॥ बालिएहिं दुब्बलजणो, सुककराईहिं नाभिभविअव्वो ॥ थेवावराहदोसेऽवि दंडभूमि न नेअव्वो ॥ ३९ ॥ अर्थः--प्रबललोगोंने दुर्बललोगोंको अधिक कर-राजदंडआदिसे न सताना तथा थोडासा अपराध होने ही पर उनको एकदम दंड न करना. करआदिसे पीडित मनुष्य पारस्परिक प्रीति न होनेसे संप छोड देते हैं. संप न होनेसे बलिष्ठ लोग भी अपने झुंडसे अलग हुए सिंहकी भांति जहां तहां ही पराभव पाते हैं. इसलिये परस्पर संप रखना ही उचित है. कहा है कि संहतिः श्रेयसी पुंसां, स्वपक्षे तु विशेषतः । तुषैरपि परिभ्रष्टा, न प्ररोहन्ति तंदुलाः ॥ २ ॥ मनुष्योंको संप कल्याणकारी है. जिसमें भी अपने २ पक्षमें तो अवश्य ही संप चाहिये. देखो, फोतरेसे अलग हुए चांवल ऊग नहीं सकते. जो पर्वतोंको फोड देता है तथा भूमिको भी फाड डालता है, उसी जलप्रवाहको तृणसमूह रोक देता है. यह संपकी महिमा है. ॥ ३९॥ कारणिएहिपि समं, कायव्वो ता न अत्थसम्बन्धो ॥ किं पुण पहुणा सद्धिं, अप्पाह अहिलसंतेहिं १ ॥४०॥ अर्थ:--अपने हितकी इच्छा करनेवाले लोगोंने राजा, देवस्थान अथवा धर्मखातेके अधिकारी तथा उनके आधीनस्थ लोगों
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy