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________________ (४९६) उन्हें एकान्तमें कहना कि, “ महाराज ! आपके समान चारित्रवन्तको क्या यह वात उचित है ?" ३२) कुणइ विणओवयारं, भत्तीए समयसमुचि सव्वं ॥ ... गाढं गुणाणुरायं, निम्मायं वहइ हिअयंमि ॥ ३३ ॥ अर्थः-शिष्यने सन्मुख आना, गुरुके आने पर उठना, आसन देना, पगचंपी करना, तथा शुद्ध वस्त्रपात्रआहारादिका दानआदि समयोचित समस्त विनय सम्बन्धी उपचार भक्तिपूर्वक करना और अपने हृदयमें धर्माचार्य पर दृढ तथा कपट रहित अनुराग धारण करना. ३३ ... भावोवयारमेसि, देसंतरिओवि सुमरइ सावि ॥ इअ एवमाइगुरुजणसमुचिअमुचिअं मुणेयव्वं ॥३४॥ अर्थ:--पुरुष विदेशमें हो तो भी धर्माचार्य के किये हुए सम्यक्त्वदानआदि उपकारको निरन्तर स्मरण करे. इत्यादि धर्माचार्यके सम्बन्धमें उचितआचरण है. ॥३४॥ .... जत्थ सयं निवासिज्जइ, नयरे तत्थेव जे किर वसति ॥ . . ससमाणवत्तिणो ते, नायरया नाम वुञ्चति ॥ ३५ ॥ अर्थ:--पुरुष जिस नगरमें रहता हो, उसी नगरमें वणिग्वृत्तिसे आजीविका करनेवाले जो अन्य लोग रहते हैं. वे नागर कहलाते हैं. ॥३५॥ ......... ... समुचिअमिणमेतेति, जमेगचित्तेहिं सनमुहदुहेहिं ॥ . वसणूसवतुल्लगमागमेहिं निबंपि होअव्वं ॥ ३६॥
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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