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________________ ( ४६८ ) सविसेसं परिपूरइ, धम्मा गए मणोरहे तस्स || एमाइ उचिअकरणं, पिउणो जणणीईवि तहेब ||६|| अर्थ :- जैसे अभयकुमारने श्रेणिकराजा तथा चिल्लणामाताके मनोरथ पूर्ण किये, वैसे ही सुपुत्रने पिताजी के साधारण लौकिक मनोरथ भी पूर्ण करना उसमें भी देवपूजा करना, सद्गुरुकी सेवा करना, धर्म सुनना, व्रत पच्चखान करना, पड़ावश्यक में प्रवृत्त होना, सातक्षेत्रों में धनव्यय करना, तीर्थयात्रा करना और दीन तथा अनाथलोगों का उद्धार करना इत्यादि जो मनोरथ होवे वे धर्ममनोरथ कहलाते हैं. पिताजी के धर्ममनोरथ बड़े ही आदर पूर्ण करना. कारण कि, इस लोक में श्रेष्ठ ऐसे मांबापके संबंध में सुपुत्रों का यही कर्तव्य है. जिनके उपकारसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकते ऐसे मातापिताआदि गुरुजनों को केवलिभाषित सद्धर्ममें लगाने के सिवाय उपकारका भार हलका करनेका अन्य उपाय ही नहीं है । स्थानांगसूत्रमें कहा है कि- . तिण्डं दुप्पडिआरं समणाउसो ! तंजदा- अम्मापिउणो १, भट्टि २ धम्मायरिअस्स ३ ॥ तीन जनोंके उपकार उतारे नहीं जा सकते ऐसे हैं । १ माता पिता, २ स्वामी और ३ धर्माचार्य । संपाओविअणं केइ पुरिसे अम्मापिअरं सथपागसहस्स पागेहि तिल्लेहि अभंगिता सुरभिणा गंधट्टएणं उच्चट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मज्जा
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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