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________________ ( ४४४ ) यशस्करे कर्माण मित्रमहे, प्रियासु नारीष्वधनेषु बंधुषु । धर्मे विव हे व्यसने रिपुत्तये, धनव्ययोऽष्टासु न गण्यते बुधैः ||२|| यः काकणीमप्यपथप्रपन्नामन्वेषते निष्कसहस्रतुल्याम् । काले च कोटिष्वपि मुक्तहस्तस्तस्यानुबंधं न जहाति लक्ष्मीः ||३|| १ यशका विस्तार करना हो, २ मित्रता करना हो, ३ अपनी प्रियस्त्रियोंके लिये कोई कार्य करना हो, ४ अपने निर्धन बान्धवोंको सहायता करनी हो, ५ धर्मकृत्य करना होवे, ६विवाह करना हो ७ शत्रुका नाश करना होवे, अथवा ८ कोई संकट आया होवे तो चतुरपुरुष धनव्यय की कुछ भी गिन्ती नहीं रखते. जो पुरुष एक कांकणी भी कुमार्ग में चली जावे तो एक हजार स्वर्णमुद्राएं गई ऐसा समझते हैं, और वेही पुरुष योग्य अवसर आने पर जो करोडों धनका छूटे हाथसे व्यय करते हैं, तो लक्ष्मी उनको कभी भी नहीं छोडती है. जैसे: -- एक श्रेष्ठीकी पुत्रवधू नई विवाही हुई थी. उसने एक दिन अपने श्वसुर को दीवेमेंसे नीचे गिरी हुई तैलकी बूंदे अपने जूतों में लगाते देखा, इससे मनमें विचार करने लगी कि, 'मेरे श्वसुरकी यह कृपणता है कि काटकसर है ? ऐसा संशय होने से श्वसुरकी परीक्षा करनेका निश्चय कर एक दिन सिर दुखने का बहाना करके वह सो रही तथा बहुत चिल्लाने लगी. श्वसुर ने बहुतसे उपाय किये तब उसने कहा कि, 'पहिले भी कभी कभी मेरे ऐसा ही दर्द होता था और वह सच्चे मोतियों
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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