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________________ (३४८) निहाविकहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलि उडेहिं । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणे अव्वं ।। ४ ।। सुननेवाली व्यक्तिने निद्रा तथा विकथाका त्याग करके मन, वचन, कायाकी गुप्ति रख, हाथ जोड और बराबर उपयोग सहित भक्तिसे आदर पूर्वक गुरुके उपदेश वचन सुनना. इत्यादिक सिद्धान्तमें कही हुई रीतिके अनुसार गुरुकी आशातना टालनेके निमित्त गुरुसे साडे तीन हाथका अवग्रहक्षेत्र छोड, उसके बाहर जीवजन्तु रहित भूमि पर बैठकर धर्मोपदेश सुनना. कहा है कि धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणधर्मनिर्वापी । गुरुवदनमलयनिःसृतवचनरसश्चान्दनस्पर्शः ॥ १ ॥ शास्त्रसे निन्दित आचरणसे उत्पन्न हुए तापको नाश करनेवाला, सद्गुरुके मुखरूप मलयपर्वतसे उत्पन्न हुआ चंदन रस सदृश वचनरूपी अमृत धन्यपुरुषों ही के उपर गिरता है । धर्मोपदेश सुननेसे अज्ञान तथा मिथ्याज्ञानका नाश होता है, सम्यक्त्वका ज्ञान होता है, संशय जाता रहता है, धर्ममें दृढता होती है, व्यसनादिकुमार्गसे निवृत्ति होती है, सन्मार्गमें प्रवृत्ति होती है, कषायादिदोषका उपशम होता है, विनयादिगुणोंकी प्राप्ति होती है, कुसंगतिका त्याग होता है, सत्संगका लाभ होता है, संसारसे वैराग्य उत्पन्न होता है, मोक्षकी इच्छा होती है, शक्त्यनुसार देशविरतिकी अथवा सर्व
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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