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________________ (३३८) कभी न करना । कारण कि, वैसा करनेसे उपरोक्त दोष आता है। वैसे ही जिनमंदिर में आई हुई नैवेद्य, चांवल, सुपारी आदि वस्तुकी निजीवस्तु के समान रक्षा करना । उचित मूल्य उत्पन्न हो, ऐसी युक्तिसे बेचना, जैसे वैसे आवे उतने ही मूल्यमें न देना । कारण कि, ऐसा करनेसे देवद्रव्यका विनाशआदि करनेका दोष आता है । प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने पर भी जो कदाचित् चोर, अग्निआदिके उपद्रवसे देवद्रव्यादिकका नाश हो जाय, तो सम्हालनेवालेका कुछ दोष नहीं । कारण कि, भवितव्यताके आगे किसीका उपाय नहीं । तीर्थकी यात्रा, अथवा संघकी पूजा, साधर्मिकवात्सल्य, स्नात्र, प्रभावना, पुस्तक लि. खवाना, वाचनआदि धर्मकृत्योंमें जो अन्य किसी गृहस्थके द्रव्यकी मदद ली जाय तो, वह चार पांच पुरुषोंकी साक्षीसे लेना, और वह द्रव्य खर्च करते समय गुरु, संघआदि लोगोंके सन्मुख उस द्रव्य का स्वरूप सष्ट कह देना, ऐसा न करनेसे दोष लगता है । तीर्थआदि स्थलमें देवपूजा, स्नात्र, ध्वजारोपण, पहेरावणी आदि आवश्यक धर्मकृत्य निजीद्रव्य ही से करना चाहिये, उसमें अन्य किसीका द्रव्य न मिलाना । उपरोक्त धर्मकृत्य निजीद्रव्यसे करके पश्चात् अन्य किसीने धर्मकृत्यमें वापरनेको द्रव्य दिया होवे तो उसे महापूजा, भोग, अंगपजा आदि कृत्योंमें सबकेसमक्ष अलग काममें लेना. जब बहुतसे गृहस्थ मिलकर यात्रा, साधर्मिक वात्सल्य, संघपू
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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