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________________ (२६७) भगवान्की भक्तिभी निषिद्ध आचरण करनेवालेको विशेष फलदायक नहीं होती । जैसे पथ्य सेवन करनेवालेको औषधिसे आरोग्य लाभ होता है, वैसे ही स्वीकाररूप और परिहाररूप दोनों आज्ञाओंका योग होवे तो फल सिद्धि होती है. श्रीहेमचन्द्रसूरिने भी कहा है कि, हे वीतरागभगवान् ! आपकी सेवा पूजा करनेसे भी आपकी आज्ञा का पालन ही श्रेष्ठ है कारण, कि आज्ञाका आराधन और विराधन ये दोनों क्रमसे मोक्ष और संसारको देते हैं याने आपकी सेवा होवे तबही मोक्ष होवे अन्यथा न होवे ऐसा नहीं है लेकिन आज्ञाके विषयमें तो आज्ञाकी आराधना से ही मोक्ष है अन्यथा संसारभ्रमण होवे यह निश्चित है । हे वीतराग ! आपकी आज्ञा सर्वदा त्याज्य वस्तुके त्यागरूप और ग्र.ह्यवस्तुके आदररूप होती है । आश्रय सर्वथा त्याज्य है, और संवर सर्वथा आदरने योग्य है। पूर्वाचार्योंने द्रव्यस्तव तथा भावस्तवका फल इसप्रकार कहा है:द्रव्यस्तवकी उत्कृष्टतासे आराधना की होवे तो प्राणी बारहवें अच्युत देवलोक तक जाता है. और भावस्तवकी उत्कृष्टतासे आराधना करी होवे तो अंतर्मुहूर्तमें निर्वाणको प्राप्त होता है। द्रव्यस्तव करते यद्यपि कुछ षटकायजीवोंकी उपर्मदनादिकसे विराधना होती है, तथापि कुएके दृष्टान्तसे गृहस्थजीवको वह (द्रव्यस्तव) करना उचित है । कारण कि, उससे कर्ता (द्रव्यस्तव करने वाला), द्रष्टा (द्रव्य स्वतवको देखनेवाला), और श्रोता
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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