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________________ (१८८) हुआ स्थान न हो, ऐसा कहनेका कारण यह है कि, ढंका हुआ स्थान होवे तो वहां बिच्छु आदिका काटना संभव है, तथा मल आदिसे चींटी आदि चली जायें, इसीलिये तृणादिकसे ढंका हुआ नहीं चाहिये । वैसे ही जहां की भूमि थोडे समयकी अचित्त की हुई हो, ऐसा कहनेका कारण यह है कि, अग्निका तापआदि करके अचित्त की हुई भूमि, दो मास तक अचित्त रहती है, पश्चात् मिश्र हो जाती है । जिस भूमि पर चौमासेमें गांव बसा हो वह भूमि बारह वर्ष तक शुद्धस्थंडिलरूप होती है । और भी कहा है कि- दिशा विचार कर बैठना, पवन, ग्राम तथा सूर्य इनकी तरफ पीठ करके नहीं बैठना, छायामें तीन बार पूंज कर, "अणुजाणह जस्सुग्गहो" कह, अपने शरीरकी शुद्धि हो वैसे मल मूत्रका त्याग करना । उत्तर व पूर्वदिशाकी ओर मुख करना ठीक है । रात्रि में दक्षिण दिशामें पीटकरके करे तो राक्षस, पिशाचादिक आ पडते पीडाकरते हैं. पवनके सन्मुख मुख करे तो नाकमें अर्शआदिको पीडा हो, सूर्य और ग्रामके सन्मुख पीठ करे तो निंदा हो । जो संज्ञा जीव उत्पत्ति वाली हो तो वहांसे अलग जाकर किसी वृक्षादिकी छायामें त्याग करना, छाया न हो तो धूप ही में अपनी छायामें त्याग करना, त्याग करके एक मुहूते (दो घडी, तक वहां बैठना । अणावायमसलाए, परस्सऽणुवघाइए। समे अझुमिरे वावि, अचिरकालकयमि अ ॥ १ ॥
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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