SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ग्रहणादिषु सापेक्षद्रव्यत्वम् • तदेवमुक्तं कैः केषां पराघात इत्यपि । अथ ग्रहणादीनां द्रव्यभाषात्वमेव समर्थयति 'पाहनं दव्वस्स य अप्पाहनं तहेव किरिआणं भावस्स य आलंबिय गहणाइसु दव्वववएसो । । ११ ।। - = ४७ द्रव्यस्य च प्राधान्यं तथैव क्रियाणां ग्रहणादिरूपाणां भावस्य च = भाषापरिणामलक्षणस्य, अप्राधान्यमालम्ब्य = विवक्षाविषयीकृत्य, ग्रहणादिषु द्रव्यव्यपदेशः तथा चोक्तं दशवैकालिकवृत्ती 'एषा त्रिप्रकाराऽपि क्रिया द्रव्ययोगस्य' प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यभाषेति भाव' इति (दश. वै. अध्य. ७ नि.गा. २७१ हा वृत्ती) ।।११।। अन्यथाङ्गीकारे दोषमाह 'अप्राधान्यमालम्ब्ये' ति। अनेन क्रियाभावापलापमकृत्वेत्यर्थो व्यज्यते; अन्यथाऽप्रमाणत्वप्रसङ्गात् । एतदेव ग्रहणादिषु द्रव्यव्यपदेशस्य सम्यक्त्वे बीजम् ||११|| संभावना है, न कि मिश्र भाषाद्रव्य की । * आवश्यकनियुक्ति की साख 'तथा चोक्तं'. इत्यादि । विवरणकार यहाँ भद्रबाहुस्वामीकृत आवश्यकनिर्युक्ति का हवाला देते हैं जिसका अर्थ है- "भाषा की समश्रेणि में रहा हुआ श्रोता जिन शब्दों को सुनता है, वे मिश्र होते हैं। भाषा की विश्रेणि में रहा हुआ श्रोता जिन शब्दों को सुनता है वे अवश्य पराघात = शब्दसंस्कार होने पर ही श्रवण के विषय होते हैं" ||१०|| 'तदेव' इति। इस तरह १०वीं गाथा में किन भाषाद्रव्यों से किन भाषाद्रव्यों का पराघात होता है?" यह भी बताया गया है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि- "ग्रहणभाषा, निसरणभाषा और पराघातभाषा द्रव्यभाषास्वरूप ही क्यों है? भावभाषास्वरूप क्यों नहीं ? इन तीन भाषा में भावभाषा का व्यवहार करने में क्या दोष है ?" इस शंका को ग्रंथकार ११वीं गाथा से दूर करते हैं । गाथार्थ :- द्रव्य के प्राधान्य की विवक्षा और भाव तथा क्रिया की अप्रधानता की विवक्षा कर के ग्रहणादि तीन भाषा में द्रव्यभाषा का व्यवहार होता है | ११ | * ग्रहणादि भाषा द्रव्यप्राधान्यविवक्षा से द्रव्यभाषा है * विवरणार्थ:- यहाँ यह शंका कि "ग्रहणादि द्रव्यभाषा में ग्रहणादि क्रिया विद्यमान है और भाषा के परिणामरूप भाव भी विद्यमान है तब तो ग्रहण- निसरण-पराघात भाषा में भावभाषा का व्यवहार होना चाहिए। अतः ग्रहणादि भाषा को द्रव्यभाषा कहना ठीक नहीं है।" करना उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि वास्तव में सब चीजों में अनंत धर्म रहते हैं यानी सब चीजें अनंतधर्मात्मक होती हैं मगर वस्तु में रहे हुए सब धर्म का व्यवहार कोई भी नहीं करता और वह शक्य भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति देश-कालादि की अपेक्षा से और प्रयोजन के अनुसार वस्तु में रहे हुए अनंत धर्म में से किसी धर्म की मुख्यता और किसी धर्म की गौणता का आलंबन ले कर व्यवहार करती है। लौकिक व्यवहार इस तरह ही चलता है। यहाँ भी ग्रहण आदि भाषा में विद्यमान ग्रहणादि क्रिया और भाषारूप परिणाम की विवक्षा किये बिना द्रव्य की विवक्षा करने से ग्रहणादिभाषा को द्रव्यभाषा कहा गया है। मतलब यह है कि ग्रहणादि भाषाद्रव्य में ग्रहणादि क्रिया की और भाषापरिणामरूप भाव की गौणता और द्रव्यत्व की मुख्यता विवक्षित होने से ग्रहणादि भाषाद्रव्य को द्रव्यभाषारूप से बताता गया है। प्रयोजन के अनुसार किसी धर्म में मुख्यता और किसी धर्म में गौणता की विवक्षा करने में कोई दोष नहीं है। हाँ, दोष तब आता यदि ग्रहण आदि भाषा में ग्रहणआदि क्रिया और भाषापरिणामरूप भाव का अपलाप किया जाय। मगर ऐसा अपलाप नहीं किया है। अतः द्रव्य की प्रधानता तथा क्रिया और भाव की अप्रधानता की विवक्षा कर के ग्रहणादि तीनों में द्रव्यभाषा का व्यवहार करना निर्दोष है। यह हमारी मनमानी कल्पना नहीं है किन्तु शास्त्रविशारद महनीय आचार्यदेवेश श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ने दशवैकालिकसूत्र-निर्युक्ति की टीका बनाई है, इसका पाठ भी इसके लिए साक्षीभूत है। दशवैकालिकनियुक्ति के वृत्ति पाठ का अर्थ यह है कि ग्रहणादि तीन प्रकार की क्रिया द्रव्यभाषा है, क्योंकि ग्रहणादि में द्रव्ययोग के प्राधान्य की विवक्षा है।" अतः श्रीहरिभद्रसूरिजी के वचन से भी यही सिद्ध होता है कि 'ग्रहणादि में द्रव्य की प्रधानता विवक्षित है' ।। ११ ।। १ प्राधान्यं द्रव्यस्य चाप्राधान्यं तथैव क्रियाणां । भावस्य चालम्ब्य ग्रहणादिषु द्रव्यव्यपदेशः । । ११ । । २ कप्रतौ चपदं नास्ति । ३ अत्र कप्रतौ 'द्रव्ययोगप्राधान्येनेति पाठः । ४ 'भाव इति' च हारिभद्रवृत्तौ भिन्नवाक्यस्थतया प्रदर्शितम् ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy