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________________ * श्रुतसागरमतनिकन्दनम् * अथ योऽयं भाषाभेदः क्रियते स कतिविध इति प्रसङ्गादाहसे भेए पंचविहे खंडे पयरे अ चुन्निआभए। अणुतडियाभेए तह, चरिमे उक्करिआभेए।७।।' स-पूर्वोक्तः, भेदः = भाषाद्रव्याणां यथावस्थितानामवयवविभागः', पञ्चविधः = पञ्चप्रकारः। खंडेत्ति खंडभेदः प्रथमः, पयरेत्ति प्रतरभेदो द्वितीयः; चूर्णिकाभेदस्तृतीयः तथेति समुच्चये; अनुतटिकाभेदश्चतुर्थः; चरमः = सूत्रोक्तक्रमापेक्षयाऽन्तिम, उत्करिकाभेद तेन च मंदप्रयत्ननिसृष्टभाषाद्रव्याणां सङ्ख्येययोजनात्परं भाषावर्गणारूपेण विनाशानियमः सूचितः।।६।। 'प्रसङगादिति। प्रसङगसंगत्येत्यर्थः। प्रसङगसङगतित्वं चोपस्थितविषयनिष्ठोपेक्षानर्हतावच्छेदकधर्मवत्त्वम | भिन्नभाषाद्रव्यनिरूपणे विशेषणतयोपस्थितो भेद उपेक्षां नार्हतीति तन्निरूपणं न्याय्यमित्यर्थः। अनेन पूर्वोत्तरश्लोकयोरेकवाक्यता प्रतिपादिता। तदुक्तं चिंतामणिवृत्तौ भवानंदेन 'सङ्गतिप्रदर्शनस्य फलमेकवाक्यताप्रतिपत्ति'रिति (त. चि. अनुमानखंड भवानंदवृत्ति पृ. ४)। एवमन्यत्राऽपि सङ्गतिभावना कार्या। 'भेदा' इति तत्त्वार्थसिद्धसेनीयवृत्ती "एकत्वद्रव्यपरिणतिविश्लेषो भेदः। स च पुद्गलपरिणामो भिद्यमानवस्तुविषयत्वात्; तद्व्यतिरेकेणानुपलब्धेभिन्नद्वयमेव भेद" इत्येवमुक्तम् । 'यथावस्थिताना मित्यनेन पूर्वरूपापरित्यागेनाऽवयवविभागो भेदः इत्यर्थः प्राप्तः। 'पञ्चविध' इति । अनेन भेदविभागः प्रतिपादितः। सामान्यतोऽवगतानां विशेषरूपेण परस्परसङ्कराऽसमावेशपरिहारपूर्वमभिधानं विभागः। विभागस्य न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदपरत्वादेव पञ्चविधत्वं लब्धं तथापि विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थं पञ्चविधग्रहणम् । अनेन "भेदः षट्प्रकारः - उत्करः चूर्णः खण्डः चूर्णिका, प्रतरोऽणुचटनं चेति तत्त्वार्थश्रुतसागरीयवृत्तिवचनमपास्तं मन्तव्यम् चूर्ण-चूर्णिकयोरविशेषात्, अनुतटिकाभेदासमावेशात्, भेदानात्मकस्याऽणुचटनस्य भेदरूपेण प्रदर्शनाच्च । यत्तु तत्र "अतितप्तलोहपिण्डादिषु द्रुघणादिभिः कुट्यमानेषु अग्निकणनिर्गमनमणुचटनमुच्यते" (तत्त्वा. श्रुतसागरीयवृत्ति ५।२४) इति श्रुतसागरेण प्रदर्शितम्, तच्चायुक्तम्; अतप्तलोहपिण्डकुट्टनान्नवीनाग्न्युत्पादस्येव तप्तलोहपिण्डकुट्टनादपि नवीनाग्न्युत्पादस्याऽवयवविभागरूपभेदानात्मकत्वात्, अन्यथा मातुर्योनितः पुत्रनिर्गमनस्याऽप्यतिरिक्तभेदप्रसङ्गेन भेदेयत्ता विशीर्येतेति दिक् । "सूत्रोक्तक्रमापेक्षया" = प्रज्ञापनासूत्रोक्तानुपूर्व्यपेक्षया; द्रव्यों को वासित करते हैं। अन्य भाषाद्रव्यों को वे वासित न करे तो वक्ता की विदिशा में रहे हुए श्रोता को शब्द श्रवण न होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि सूक्ष्म भाषाद्रव्यों की गति समश्रेणि में ही होती है। शंका :- वाह! जंगल में मोर नाचा किसने देखा? भाषाद्रव्यों जैसे अतीन्द्रिय पदार्थ के भेद आदि का निरूपण शास्त्रप्रमाण बिना कैसे मान्य होगा? क्या आपकी बात का समर्थक कोई आगमवचन है? समाधान :- जी हाँ, इस विषय में प्रमाणभूत अनेक शास्त्रवचन उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम शास्त्रप्रमाणवादी आपको हम प्रज्ञापना आगम का साक्षीपाठ देते हैं। यह रहा शास्त्रपाठ, कान खोल कर सुनिये - 'जीव जिन अभिन्न भाषाद्रव्यों को छोडता है, वे असंख्य अवगाहना वर्गणा तक दूर जा कर खंडित भिन्न होते हैं और उससे आगे संख्यात योजन जा कर वे शब्दरूप से नष्ट होते हैं। दूसरा शास्त्रपाठ विशेषावश्यक भाष्य का है। देखिये, 'असंख्यात अवगाहनावर्गणा (प्रमाणक्षेत्र) तक दूर जा कर अभिन्न भाषाद्रव्य भिन्न होते हैं और संख्यात योजन दूर जा कर वे शब्दरूप से नष्ट होते हैं।' इन शास्त्रवचनों के बल पर अभिन्न भाषाद्रव्य के सम्बन्धी वह बात सिद्ध होती है, जो हमने बताई है।।६।। नोआगम से तव्यतिरिक्त भिन्न - अभिन्न निसरणद्रव्यभाषा में विशेषणरूप से प्रविष्ट भेद की उपस्थिति होने से उसकी उपेक्षा करनी समीचीन न होने से प्रकरणकार प्रसंगतः सातवीं गाथा से भेद के स्वरूप और प्रकारों का निरूपण करते हैं। गाथार्थ :- भेद के पाँच प्रकार हैं (१) खंड भेद, (२) प्रतर भेद, (३) चूर्णिका भेद, (४) अनुतटिका भेद (५) और अन्तिम उत्करिका भेद ७। १ स भेदः पञ्चविधः खंडः प्रतरश्च चूर्णिकाभेदः। अनुतटिकाभेदस्तथा चरम उत्करिकाभेदः।७।। २ प्रकरणकारहस्तलिखितप्रतौ "अवयविभागः" इति पाठः । स चाऽशुद्धो भाति ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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