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________________ २२२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ३. गा. ५७ लक्षणत्वात्, विशेषस्यैव वा विभागाश्रयणात् । ● मिश्रभाषाविशेषस्यैव दशविधत्वकथनम् O एतेन ज्ञाने यथाऽतस्मिंस्तदवगाहित्वरूपं भ्रमत्वं तद्वति तदवगाहित्वरूपं प्रमात्वं चैकत्रैव, 'इदं रजतं' इति ज्ञानस्य धर्म्यंशे प्रमात्वाद्रजतांशे च भ्रमत्वात् एवं अघटवत्यपि भूतले 'भूतलं घटवदिति भाषाया भूतलांशे प्रमाजनकत्वात् घटांशे च भ्रमजनकत्वात् ननु विभाजकोपाधीनां विशेषणत्वमेव न तूपलक्षणत्वमपि, अन्यथा सर्वत्र विभागन्यूनतादोषविलयापत्तेरिति कदाचित् परो ब्रूयादिति मनसि निधाय कल्पान्तरं प्रदर्शयति विशेषस्यैव वा विभागाश्रयणादिति । सत्यामृषाभाषाविशेषप्रतियोगिकविभागस्यैव विवक्षणान्न तु सत्यामृषात्वावच्छिन्नप्रतियोगिकविभागस्येत्यर्थः । तथा च 'शतं दत्ता' इत्यादिप्रदर्शितभाषाणां सत्यामृषात्वावच्छिन्नत्वेऽपि सत्यामृषाविशेषत्वाभावेन विभजनीयत्वाभावादेव प्रकृतविभागेऽसमावेशेऽपि न न्यूनतादोषगन्धलेशोऽपि । अनधिकृतत्वेनाऽलक्ष्यत्वादेव तदसमुच्चयो न नो बाधायै किन्तु गुणायैवेत्याशयः । न च सत्यामृषाभाषाविशेषविभागनिरूपणे प्रतिज्ञान्तरनिग्रहस्थानप्राप्तिरिति वाच्यम् पूर्वमपि सत्यामृषाभाषाविशेषविभागनिरूपणस्यैव प्रतिज्ञातत्वान्न तु सत्यामृषासामान्यविभागनिरूपणस्य, व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तेः । सत्यामृषाविशेषविभागस्यैव प्रदर्शनं कुतः ? इति तु कुचोद्यम्, मिश्रभाषाविशेषस्यैव प्रकृतविभागप्रतियोगित्वे आर्षपुरुषाणामिच्छैव नियामिका परममुनीनां पर्यनुयोगानर्हत्वात् प्रकृतविभागानन्तर्भूतानां भाषाणां मिश्रत्वावच्छिन्नत्वेनैव प्रकृतविभागे मिश्रभाषाविशेषप्रतियोगित्वमुन्नीयत इत्यादि दृढतरं विभावनीयं सुधीभिः । एतेनेति। मिश्रभाषाविशेषविभागप्रतिपादनेनेति, वचनान्तरे सत्यामृषाविशेषभेदप्रतिपादनद्वारा सत्यामृषात्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदाभावसंभवप्रतिपादनेनेति यावत् । एकत्रैवेति एकस्मिन्नेव ज्ञाने। भूतलांशे इति सप्तम्यर्थो विषयता तदन्वयश्च प्रमायाम्। तेन भूतलरूपविशेष्यांशविषयकप्रमाजनकत्वादित्यर्थः । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तदुक्तं सिद्धिका बोध = ग्रहण होता है वैसे उत्पत्ति क्रिया से अन्य दानादि क्रिया का भी बोध होता है। अतः उत्पत्तिक्रियाविषयक मिश्रभाषा के प्रदर्शन से दानादिक्रियाविषयक मिश्रभाषा का भी प्रदर्शन हो जाता है। अर्थात् उत्पन्नमिश्रितभाषा की तरह दत्तमिश्रित आदि भाषा भी सत्यामृषा है - इस आशय से उत्पन्नमिश्रित आदि भाषा का निरूपण किया गया है। ठीक इसी तरह ही जीवमिश्रित आदि भाषा के घटकीभूत जीव आदि शब्द भी अन्य वस्तुओं के उपलक्षण हैं। अर्थात् जैसे जीवमिश्रित आदि भाषा सत्यामृषा भाषास्वरूप है वैसे अन्यवस्तुमिश्रित भाषा भी सत्यामृषा ही है, अन्यस्वरूप नही इस अर्थ का बोध कराने के तात्पर्य से जीव आदि शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः "अशोकवनं" इत्यादि प्रदर्शित वचन भी सत्यामृषा स्वरूप ही सिद्ध होते हैं। आशय यह है कि उत्पन्नमिश्रित आदि प्रदर्शित दशविध भाषा ही मिश्रभाषा है ऐसा नहीं है किन्तु इन दश भाषा के अतिरिक्त दत्तमिश्रित आदि भाषा भी सत्यामृषा भाषा हैं। दशविध विभाग अन्यभाषा में सत्यामृषात्व का निषेधक नहीं है। अतः कोई दोष नहीं है । * अव्याप्ति का दूसरे ढंग से निराकरण * विशेषस्यैव इति । विवरणकार समाधान देने के लिए अन्य अभिप्राय का आश्रय कर के बताते हैं कि ये दशभेद सत्यमृषाभाषासामान्य के नहीं है किन्तु सत्यमृषाभाषाविशेष का है। अर्थात् प्रदर्शित विभाग विशेषमिश्रभाषा का ही है, सामान्यमिश्रभाषा का नहीं। आशय यह है कि प्रकृत दशविध मिश्रभाषा से अतिरिक्त कोई भी भाषा मिश्रभाषा नहीं है - ऐसा निषेध इस विभाग से सूचित नहीं होता है, मगर अन्य भाषा प्रदर्शित मिश्रभाषाविशेषस्वरूप नहीं है ऐसा निषेध होता है। अर्थात् दशविध सत्यामृषा भाषा से अन्य भाषा मिश्रभाषा विशेषान्तरस्वरूप और यहाँ अनधिकृत है - ऐसा फलित होता है। दत्तमिश्रितादि भाषा का दशविध मिश्रभाषा के विभाग में समावेश न होने पर भी न्यूनता आदि कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह विवक्षित सत्यामृषाभाषाविशेषस्वरूप नहीं है। अर्थात् वह अलक्ष्य है। जो वस्तु विभाग का लक्ष्य ही न हो उसका समावेश उसे विभाग में न हो तो न्यूनता दोष का अवकाश नहीं होता है। न्यूनता दोष तब होता, यदि दत्तमिश्रित आदि भाषा भी प्रस्तुत विभाग का लक्ष्य हो । इस सम्बन्ध में अधिक विचार भी किया जा सकता है। एतेन ज्ञाने. इति । यहाँ अन्य विद्वान मनीषियों का यह कहना है कि- "जैसे एक ही ज्ञान में भ्रमत्व और प्रमात्व रहता है वैसे
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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