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________________ * न्यूनतादोषपरिहारः * २२१ ननु' शतरूप्यकेषु देयेषु पञ्चाशत्सु दत्तेषु 'शतं दत्ता' इत्याद्यानां घवखदिराशोकद्रुमसमूहे 'चाऽशोकवनमित्याद्यानां भाषाणां 'क्वान्तर्भावः ? उत्पत्तिजीवादिमिश्रितादिनिदर्शनस्याऽतत्त्वादिति चेत् ? सत्यम्, उत्पत्तिजीवादीनां क्रियान्तरवस्त्वन्तराद्युप शतरूप्यकेषु देयेषु पञ्चाशत्सु दत्तेष्विति । प्रत्यन्तरे तु शतकेषु देशेषु पञ्चाशत्सु देशेष्विति पाठो वर्तते किन्त्वशुद्धतयाऽनादत्तः । शतं दत्ता इति । 'श्वस्ते शतं दास्यामि' इत्यभिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वांदर्शनात् सत्यत्वं, (ग्रन्थाग्रम् - ४५०० श्लोक) अदत्तेषु रूप्यकेषु चासत्यत्वमिति व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषात्वम् । सर्वथाऽदाने तु सर्वथा विपर्ययादसत्यत्वमेव स्यादतः पञ्चाशत्सु दत्तेष्वित्युक्तम् । अशोकवनमिति । पुरोवर्तिसमूहघटकीभूतवृक्षवृत्तिवृक्षत्वावच्छेदेनाऽशोकत्वस्य बाधेऽपि तत्सामानाधिकरण्येनाऽबाधाद् व्यवहारतः सत्यामृषात्वं, अवच्छेदकावच्छेदेनाऽशोकत्वान्वयतात्पर्येण प्रयोगात् । अतत्त्वादिति । अतथात्वादिति । अयं पूर्वपक्षाशयो यदुत 'शतं दत्ता' इत्यत्र दानमिश्रितत्वं न वक्ष्यमाणजीवमिश्रितत्वादिकम् । ततश्च दानमिश्रितादिवचनानां प्रदर्शितदशविध - मिश्रितभाषाऽन्तर्भावो न सम्भवति, उत्पत्तिमिश्रितादिवचनानां दानमिश्रितादिवचनविलक्षणत्वात् । समाधत्ते - सत्यमिति । अत्राऽयं शब्दोऽर्धसम्मतिप्रदर्शकः । उत्पत्तिजीवादीनामिति । उत्पत्तिजीवादिमिश्रितादिनिदर्शनघटकीभूतोत्पत्तिजीवादीनामित्यर्थः । क्रियान्तरवस्त्वन्तराद्युपलक्षणत्वादिति । उत्पत्ति-जीवाद्यर्थबोधकत्वे सति क्रियान्तरवस्त्वन्तरादिरूपस्वेतरार्थबोधकत्वादित्यर्थः । अयं भाव उत्पत्त्यादिपदानां स्वेतरपदार्थभूतक्रियाद्युपलक्षणत्वाद् दानादिरूपक्रियान्तरस्याऽपि यथासम्भवमुत्पत्तिजीवादिमिश्रितादिष्वन्तर्भावो बोध्यः । - एतेन 'शतं दत्ता' इत्यादिभाषाणां सत्यामृषात्वेऽपि प्रदर्शितदशविधसत्यामृषाविभागेऽनन्तर्भावान्न्यूनतादोष इति निरस्तं, यथायथं दशविधविभागे समावेशेन विभाज्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदकूटस्य विभाज्यवृत्तित्वात् । देने के हैं और वह पचास रूपए दे कर कहता है कि शेठजी! मैंने १०० रूपए दे दीये हैं। तब उसकी भाषा मिश्र है, क्योंकि दान क्रिया के देशभूत ५० रूपए के दान में यह भाषा सत्य है और शेष ५० रूपए के दान के अंश में असत्य है। लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है कि 'मैं १०० रूपए दूँगा' ऐसा बोल कर दूसरे दिन यदि ५० रूपया दे दे तब भी उस पुरुष में 'यह मृषावादी है' • ऐसा व्यवहार नहीं होता है। अतः इस अभिप्राय से यह भाषा सत्य है और शेष पचास रूपए को नही देने की दृष्टि से वह भाषा असत्य भी है। मगर प्रदर्शित दशविध मिश्रभाषाविभाग में इस भाषा का समावेश नहीं हो सकता है, क्योंकि यह भाषा न उत्पत्तिमिश्रित है, न विगतमिश्रित है और न ही शेषमिश्रितभाषारूप है किन्तु यह भाषा तो दानमिश्रितभाषा स्वरूप है जिसका दशविध विभाग में समावेश नहीं हो सकता हैं, क्योंकि उत्पत्तिमिश्रित आदि भाषा के दृष्टान्त प्रस्तुत दृष्टान्त से विलक्षण हैं। ठीक इसी तरह धव, खदिर, अशोक आदि के वृक्षों के समूहरूप वन में 'यह अशोक वन है' यह भाषा भी मिश्रभाषास्वरूप है, क्योंकि वृक्षसमूह के एक देश में यह भाषा अबाधितसंसर्गवाली होने से सत्य है और अन्य अंश में यह भाषा बाधितसंसर्गवाली होने से असत्य है। वृक्षसमूह में कतिपय वृक्ष ही अशोक के हैं, सभी वृक्ष अशोक के नहीं है, क्योंकि अशोकवृक्ष के अलावा धव, खदिर, आम आदि के पेड़ भी वहाँ हैं। मगर इस भाषा का समावेश जीवमिश्रित, अजीवमिश्रित आदि भाषा में नहीं हो सकता है, क्योंकि जीवमिश्रित आदि भाषा के दृष्टांत से यह भाषा विलक्षण है और इस भाषा की अपेक्षा जीवमिश्रितादि उदाहरण विलक्षण हैं। यह भाषा जीवमिश्रित नहीं है मगर वृक्षमिश्रित है। अतः मिश्रभाषा का दशविध विभाग ठीक नहीं है। (मिश्रभाषा का विभाग निर्दोष है) उत्तरपक्ष :- सत्यं इति । यहाँ सत्यं शब्द का प्रयोग अर्ध स्वीकार अर्थ में प्रयुक्त है। आशय यह है कि दानक्रियाविषयक मिश्रभाषा और विजातीयवृक्षविषयक मिश्रभाषा का उत्पन्नमिश्रित आदि भाषा में या जीवमिश्रित आदि भाषा में समावेश नहीं होता है, यह बात ठीक है, फिर भी यहाँ न्यूनता आदि किसी दोष का अवकाश नहीं है। इसका कारण यह है कि उत्पत्ति आदि क्रियाविषयक उत्पन्नमिश्रित आदि भाषा का घटकीभूत उत्पत्ति आदि शब्द उपलक्षण है। अर्थात् उत्पत्ति शब्द से जैसे उत्पत्ति क्रिया 'वाऽशो' इति पाठः । ३. मुद्रितप्रतौ 'च १. अत्र मुद्रितप्रतौ - शतकेषु देशेषु पंचाशत्सु देशेषु इत्यत्यन्ताशुद्धः पाठः । २ मुद्रितप्रतौ क्वा' इति पाठः । ४. मुद्रितप्रतौ निदर्शना स्यात् तत्त्वादिति एवमशुद्धः पाठः । -
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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