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________________ * द्वित्वादेर्व्यङ्ग्यत्वव्यवस्थापनम् * १४१ द्वित्वे च न चैत्रीयत्वमस्ति येन चैत्रीयद्वित्वे चैत्रीयापेक्षाबुद्धेश्चैत्रीयद्वित्वप्रत्यक्षे चैत्रीयद्वित्वस्य च हेतुत्वं स्यादित्यन्यत्र विस्तर पराभिधानया चैत्रनिष्ठया जनितस्य द्वित्वस्य चैत्रस्येव मैत्रस्याऽप्यपेक्षाबुद्धिशून्यस्य प्रत्यक्षत्वं स्यात् चक्षुरादिसामग्रीसद्भावात्। न चैतदिष्टम्, द्रष्टविरोधात् । अतो द्वित्वादिकमपेक्षा - बुद्धिव्यङ्ग्यमेवेति सिद्धमिति भावः । ननु मया पुरुषान्तरापेक्षाबुद्धिजनितद्वित्वस्य पुरुषान्तराप्रत्यक्षत्वाय चैत्रीयद्वित्वप्रत्यक्षं प्रति चैत्रापेक्षा - बुद्धिजनितद्वित्वत्वेन रूपेण चैत्रापेक्षाबुद्धिजनितद्वित्वस्य हेतुत्वं कल्प्यते । कार्यतावच्छेदकसम्बन्धो द्वित्वनिष्ठविषयता कारणतावच्छेदकसम्बन्धश्च तादात्म्यं तथा समवायेन चैत्रीयद्वित्वे विशेष्यताख्यविषयतासम्बन्धेन चैत्रापेक्षाबुद्धेः हेतुत्वं कल्प्यते । तथा च चैत्रीयद्वित्वस्य मैत्रीयद्वित्वप्रत्यक्षेऽहेतुत्वादेव मैत्रस्य न तत्प्रत्यक्षत्वाऽऽपत्तिरिति मत्पक्षे न दोषलेशगन्धोऽपीति नैयायिकाशयं निरस्यति - द्वित्वे चेति । यद्यपि जन्यत्वपक्षे अपरिमितद्वित्वादिध्वंसप्रागभावादिकल्पनायां गौरवम्, नानापुरुषीयक्रमिकापेक्षाबुद्धिसमसङ्ख्यतुल्यव्यक्तिकनानाद्वित्वादिकल्पनायां महागौरवम्, मानसत्वादिव्याप्यजातिविशेषेणापेक्षाबुद्धेर्द्वित्वादिहेतुत्वे तदभिमतेश्वरापेक्षाबुद्ध्या परमाणुद्वित्वाद्यजननापत्तिः तथा च सति- 'कार्यायोजनधृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात्सङ्ख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः । । ( न्या. कृ. ५/१) इत्युदयनवचनविरोधः । ईश्वरज्ञानसाधारणद्वित्वादिजनकतावच्छेदकजातिस्वीकारे च जन्यसाक्षात्कारत्वादिना साङ्कर्यं त्रित्वाद्युत्पत्तिकाले द्वित्वाद्युत्पत्त्यापत्तिश्च दुर्निवारा इति बहवो दोषास्तथापि स्फुटत्वात्तानुपेक्ष्य मूलशैथिल्यप्रदर्शनार्थं द्वित्वे च न चैत्रीयत्वमस्तीत्युक्तम् । अयं भावः परैः द्वित्वादिकं प्रति अपेक्षाबुद्धेर्निमित्तकारणत्वमभ्युपगम्यते न तु समवायिकारणत्वम् ततश्च द्वित्वे चैत्रीयत्वादिस्वरूपोऽपेक्षाबुद्धिकृतविशेषो भवितुं नार्हति अन्यथा सुवर्णदण्डजन्यघटेऽपि काष्ठदण्डजन्यघटापेक्षया वैजात्यं स्यात् तथा च काष्ठसुवर्णदण्डद्वयजनितैकघटे तयोः साङ्कर्यं दुर्निवारम् दण्डद्वयजन्यघटे जात्यन्तरस्वीकारे च गौरवात् मानाभावाच्चेत्यादि सूक्ष्ममीक्षणीयम् । किञ्च द्वित्वादिजन्यनये समश्रेण्यवस्थिते घटद्वये 'अयमेकः' इतिज्ञानं प्रमाणं स्यात् तद्वति तत्प्रकारकज्ञानरूपत्वात् द्रष्टुरपेक्षाबुद्ध्यनुत्पादेन द्वित्वस्यानुत्पन्नत्वात् । न चेष्टापत्तिर्वक्तुं युज्यते मृषाभाषित्वेन तन्निग्रहस्यानुपपत्तेरिति दिक् । यद्यपि स्याद्वादकल्पलतायां प्रकरणकारेणाऽपेक्षाबुद्धेर्द्वित्वादिव्यवहारनिमित्तत्वं 'ममाप्यपेक्षाबुद्धेरेव को द्वित्व का प्रत्यक्ष होने में चैत्रीय द्वित्व हेतु होता है, मैत्रीय द्वित्व नहीं तथा मैत्र को द्वित्वप्रत्यक्ष होने में मैत्रीयद्वित्व हेतु होता है, चैत्रीय द्वित्व नहीं । उपर्युक्त दो नियमों के अनुसार अब चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व संख्या का मैत्र को प्रत्यक्ष होने की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि चैत्रीय अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व चैत्रीयद्वित्व होता है, जो कि चैत्र के हि द्वित्वप्रत्यक्ष में हेतु होता है । यदि मैत्र को द्वित्व का प्रत्यक्ष करना हो तब मैत्रीय द्वित्व की आवश्यकता है जो कि मैत्र की अपेक्षाबुद्धि से जन्य है न कि चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से । जहाँ मैत्र को 'अयमेकोऽमेकः' इत्याकारक अनेक एकत्व अवगाहिनी अपेक्षाबुद्धि ही उत्पन्न नहीं हुई है वहाँ मैत्रीयद्वित्व ही उत्पन्न नहीं हुआ है, जो कि मैत्र के द्वित्वप्रत्यक्ष में हेतु है, तब मैत्र को द्वित्वप्रत्यक्ष होने की संभावना ही कैसे होगी ? विषय भी स्वविषयक लौकिक प्रत्यक्ष को उत्पन्न करने में प्रयोजक होता है। बिना हेतु तो किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है - यह तो प्रायः सब लोगों को मान्य है। अतः आपने जो समस्या बताई थी कि चैत्रीय अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व का मैत्र को भी प्रत्यक्ष होने लगेगा वह अब हल हो गई है और हमारा यह सिद्धांत कि 'अपेक्षाबुद्धि से द्वित्वादि संख्या उत्पन्न होती है' भी अखंडित रहा है। साँप मरा नहीं और लाठी भी टूटी नहीं । अतः द्वित्व को अपेक्षाबुद्धि से व्यंग्य मानना निर्युक्तिक है। - * द्वित्व में चैत्रीयत्व न होने से नैयायिकमत अस्वीकार्य स्याद्वादी :- द्वित्वे च इति । उस्ताद! आप चाहे कितना भी प्रयास कीजिए, मगर सो सुनार की एक लुहार की। आपका कार्यकारणभाव चैत्रीय द्वित्व के पर ही अवलंबित है। मगर वास्तव में चैत्रीय द्वित्व जैसी कोई चीज ही सारे जहाँ में नहीं है तब आपसे बताया गया चैत्रीयद्वित्व और चैत्रीयद्वित्वप्रत्यक्ष के बीच कार्यकारणभाव कैसे सिद्ध होगा ? आशय यह ज्ञात होता है कि
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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