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________________ १४० भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३० ● द्वित्वोत्पादनिरूपणम् ० एवं द्वित्वादिकमप्यपेक्षाबुद्धिव्यङ्ग्यमेव न तु तज्जन्यं चैत्रीयापेक्षाबुद्धिजनितद्वित्वस्य मैत्रस्याऽपि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । कृतः। तथा चाऽऽमशरावपाकप्रयोजकाग्निसंयोगान्न पृथिवीत्वहेतुसिद्धगन्धस्य नाशः पृथ्वीगन्धनाशकतावच्छेदकजातिविशेषशून्यत्वात् इति स्थितम् । एवञ्च जलसम्पर्कः पूर्वोत्पन्नस्य शरावस्थस्य गन्धस्याभिव्यञ्जको न त्वपूर्वगन्धोत्पादक इति सिद्धम् । नैयायिका द्वित्वादिकमपेक्षाबुद्धिजन्यमेव मन्यन्ते । तेषामियं प्रक्रिया - प्रथमं 'अयमेकोऽयमेक' इत्याकारिकाऽपेक्षाबुद्धिर्जायते । ततो द्वित्वोत्पत्तिः ततो विशेषणज्ञानं द्वित्वत्वनिर्विकल्पात्मकं ततो द्वित्वत्वविशिष्टप्रत्यक्षमपेक्षाबुद्धिनाशश्च ततो द्वित्वनाश इति । द्वित्वं प्रति आश्रयगतैकत्वं असमवायिकारणम् अपेक्षाबुद्धिर्निमित्तकारणम् आश्रयीभूतं द्रव्यं च समवायिकारणम्। तेषामिदमाकूतम् - द्वित्वस्य व्यंग्यत्वनयेऽपेक्षाबुद्धेर्द्वित्वत्वप्रकारकलौकिकप्रत्यक्षत्वं कार्यतावच्छेदकं वाच्यं जन्यत्वनये तु द्वित्वत्वमेवेति लाघवम् । तन्निराकरोति- एवमिति । यथा अणुत्व - महत्त्वादयः सप्रतियोगिकभावा निष्प्रतियोगिकरूपादिभावानामिव पदार्थैः सहैवोत्पद्यन्ते प्रतियोगिप्रतिसन्धानवशात्पश्चान्नोत्पद्यन्ते किन्तु व्यज्यन्ते, 'परत्वापरत्वे रूपादि च पदार्थैः सहैवोत्पद्यन्ते न त्वपेक्षाबुद्धिवशात्पश्चात्' (स्या. रत्ना. ५/८) इति वादिदेवसूरिवचनात् तथैव द्वित्वादिकमपि अपेक्षा बुद्ध्या व्यज्यते न जन्यते। अत्र विपक्षबाधकमाह चैत्रीयापेक्षाबुद्धिजनितद्वित्वस्य मैत्रस्यापि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गादिति । अयं भावः यथा कुलालजनितघटस्य चक्षुरादिसामग्रीवशात्कुलालस्य कुलालेतरस्य च प्रत्यक्षं जायते विषयनिष्ठप्रमातृजन्यत्वस्य प्रमातृनिष्ठविषयजनकत्वस्य वा प्रत्यक्षसामग्र्यघटकत्वात् तथैवाऽनेकैकत्वविषयिण्या बुद्ध्याऽपेक्षाबुद्ध्य* द्वित्वादि अपेक्षाबुद्धि से जन्य है नैयायिक नैयायिक :- जलसंपर्क से शराव के गन्ध की अभिव्यक्ति होती है - इसका स्वीकार हम करते हैं, मगर अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व आदि संख्या उत्पन्न होती है, व्यक्त नहीं इसका स्वीकार तो आपको भी करना ही होगा। इस सम्बन्ध में हमारी प्रक्रिया संक्षेप से इस तरह है - प्रारंभ में पुरुष को दो चीज देख कर 'अयमेकः अयमेकः' इत्याकारक अपेक्षा बुद्धि उत्पन्न होती है। अनन्तर समय में अपेक्षाबुद्धि से द्वित्वसंख्या की उत्पत्ति होती है। उसके बाद द्वित्वत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है। बाद में द्वित्व का विशिष्टप्रत्यक्ष होता है और साथ साथ अपेक्षाबुद्धि का नाश होता है। उसके बाद द्वित्वसंख्या का नाश होता है । द्वित्व की उत्पत्ति मानने में द्वित्वत्व अपेक्षाबुद्धि का कार्यतावच्छेदक धर्म होता है। द्वित्व के अभिव्यक्ति पक्ष में द्वित्वप्रकारकलौकिकप्रत्यक्षत्व कार्यतावच्छेदक होता है। स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति पक्ष में कार्यतावच्छेदक में गौरव होता है। अतः द्वित्व की उत्पत्ति मानना ही श्रेयस्कर है। * द्वित्वादि अपेक्षाबुद्धि से व्यंग्य है- स्याद्वादी * स्याद्वादि :- एवं. इति । ओ नैयायिक के शागिर्द! साँप निकल गया अब लकीर पीटने से क्या ? शरावगंध की जल से अभिव्यक्ति सिद्ध हो गई इसीसे द्वित्व की भी अपेक्षाबुद्धि से अभिव्यक्ति सिद्ध हो जाती है। आपकी बनाई हुई द्वित्व की उत्पत्ति की प्रक्रिया में कोई प्रमाण नहीं है। अतः आपकी मान्यता श्रद्धेय नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि द्वित्व की उत्पत्ति मानने के पक्ष में तो चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से जनित द्वित्व का मैत्र को भी, जो कि अपेक्षाबुद्धि से रहित है, प्रत्यक्ष होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व तो सब के लिए समान ही है। प्रत्यक्षस्थल में यह कभी देखा नहीं गया है कि जो प्रमाता विषय का जनक हो उसके लिए हीं वह विषय प्रत्यक्ष हो, अन्य के लिए नहीं । अन्यथा कुम्हार आदि की आजीविका ही उच्छेद हो जायेगा, क्योंकि कुम्हार से जन्य घट का कुम्हार से भिन्न पुरुष को प्रत्यक्ष न होने पर वे लोग घट आदि को कैसे खरीदेंगे ? मगर ऐसा नहीं होता है । अतः द्वित्व की अभिव्यक्ति मानना ही युक्त है। नैयायिक :- आपने जो यह आपत्ति बताई है कि - द्वित्वोत्पत्ति के पक्ष में चैत्रीय अपेक्षाबुद्धि से जन्य द्वित्व का मैत्र को भी प्रत्यक्ष हो जायेगा - यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्वित्व के प्रत्यक्ष का कार्यकारणभाव इस तरह है कि द्वित्वसंख्या उत्पन्न होती है और मैत्र की अपेक्षाबुद्धि से मैत्रीय द्वित्वसंख्या उत्पन्न होती है। दूसरा चैत्र की अपेक्षाबुद्धि से चैत्रीय यह भी एक नियम है कि चैत्र - -
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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