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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा मुन्मुन बोलती थी। करकमलों द्वारा गोद में लेनेवालों के पास भी सुन्दर नवगीत गाते हुए बातें करती थी। तालियों के ताल के मध्य अंगूठे के वादन से जब वह नृत्य करती थी, तो वादन करनेवाले खुश होकर कहते थे-और नृत्य करो। और नृत्य करो। इस प्रकार सौभाग्यशालिनी वह स्वयं सौभाग्य का सेवन कर रही थी। हंसती हुई मुखमुद्रा से वह अनेक क्रीड़ाओं द्वारा क्रीड़ा करती थी। उसके कला-ग्रहण का काल प्राप्त होने पर राजा ने कलाचार्य को बुलाकर राजकन्या को कलाओं से शिक्षित बनाने के लिए कलानिधी को अर्पण कर दी। उसके हृदय रूपी दर्पण में शीघ्र ही कलाएँ संक्रान्त हो गयीं। कलाचार्य तो सिर्फ कलाओं के दर्शक ही हुए। पूर्वभव में धर्म किया हुआ होने से सुलभबोधि होने से उसने धर्माचार्य को प्राप्तकर शीघ्र ही सम्यक्त्व ग्रहण किया। कर्म-प्रकृति आदि शास्त्रों के समूह दुर्गम होने पर भी उसने पढ़ लिये। इस प्रकार वह अद्भुत बुद्धि की पात्र बनी। प्रव्रज्या रूपी सत्चर्या ही साध्यमान है। इस प्रकार माता-पिता की भी जिनधर्म युक्त मति बनी। जिनधर्म भाव से रञ्जित उसको देवी ने सुवर्ण से निर्मित भावी तीर्थंकर शांतिनाथ प्रभु की दिव्य प्रतिमा अर्पित की एवं कहा कि हे वत्से! इस प्रतिमा की नित्य पूजा करना। वह भी चिंतमाणि के समान उस मूर्ति को प्राप्त करके नित्य अर्चना करती थी। लीला से ललित सुन्दर यौवन को प्राप्त करके उसकी देह जन्मान्तर को पाने के समान परिवर्तित हो गयी। उसके चरण-कमल गति करते हुए तरल तरंगों की तरह दृष्टिगोचर होते थे। क्रीड़ा से सुध-बुध खोते हुए उसके नेत्र कमल के समान प्रतीत होते थे। उसकी कटि तनुता को प्राप्त नितम्ब का अनुसरण करती थी। उसके वक्ष समुन्नत स्तनों से युक्त तथा अद्वैत रूप एक आह्वान था। यौवन को धारण किये हुए कुमारी का अंग-विन्यास मानो चित्रलिखित सा था। उसका वह रूप रति के रूप के गर्व को कुचलनेवाला था। उसके विवाह योग्य वय प्राप्त होने पर राजा ने सोचा कि इस सुन्दरी के असदृश रूप को देखते हुए इसे सदृश वर कैसे मिलेगा। अतः इसके विवाहित बनाने के लिए मैंने अयोग्य वर का चयन किया तो निश्चय ही मैं लोकापवाद का कारण बनूँगा। अतः मैं इसके लिए स्वयंवर का आयोजन करूँगा। स्वेच्छा से वरण करने पर मेरा कोई दोष न होगा-इस प्रकार विचारकर बिना वेतन के सिर्फ भोजन वस्त्र आवास के द्वारा काम करनेवाले अनुचरों को बुलाकर सभी राजाओं को संदेश करवा दिया। तब राजपुत्री के सौभाग्य-गुण के अनुरागी कामदेव रूपी शिकारी के अर्धचन्द्राकार नेत्र रूपी बाणों से चारों ओर से बिंधकर विवाह के आमन्त्रण के आने से उसके वशीभूत मानसवाले सभी राजा वेगपूर्वक मृग समूह की तरह वहाँ आ गये। तब महासत्त्वधारी, तत्त्वज्ञ, कलानिधि, इक्ष्वाकु वंशीय, कामदेव के रूप को भी अपने रूप से तुच्छ बताते हुए नल भी वहाँ पर आया। विदर्भपति ने उन सभी का आगमन स्वीकार करते हुए कुण्डिनपुर की चारों दिशाओं में उनके रहने की व्यवस्था की। देवों की सुधर्मा सभा के समान, वर्णन से अतिक्रान्त एक विशाल स्वयंवर-मण्डप बनवाया गया। उस स्वयंवर मण्डप में बनाये हुए सिंहासनों की ज्योति स्वर्ग के विमानों का भी अपमान कर रही थी। जल सरोवरों के समान वे रत्न सिंहासन प्रतीत हो रहे थे। उन सिंहासनों पर आसीन विभिन्न देश के राजा वेश-भूषा व रत्नाभूषणों से आवेष्टित होकर अपनी-अपनी कान्ति से मानों एक दूसरे का तिरस्कार करते हुए लग रहे थे। ___तभी चमकते हुए दिव्य तिलक से भूषित, बादल रहित पूर्व दिशा में निकलनेवाले सूर्य की तरह मनोहर बिम्ब रूप, पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह, हर्ष से युक्त मुखवाली, वर्षाश्री की तरह स्निग्ध समुन्नत पयोधरवाली, रक्त नयन युक्त कटाक्षवाली, सुन्दर हस्त-पैर-दन्तावलि युक्त, पक्षियों के झूलने से हिलनेवाली शाखाओं से झरते हुए तथा उल्लसित नवपल्लवों की तरह, मोतियों के अलंकारों से युक्त अंगवाली, खिले हुए पुष्प की तरह, शरद ऋतु में रहे हुए अति शुभ्र बादलों की तरह विशद वस्त्रों से ढकी हुई, मल्लिका की तरह मञ्च पर आसीन राजाओं 40
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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